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________________ आलोचना १०४ साधु एकान्त निर्जन प्रदेश में आचार्य की निषद्या की स्थापना कर पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख हो गुरु को वंदन कर उत्कुटुक आसन में बैठ बद्धांजलि हो आलोचना करता है। आलोचक साधु यदि रुग्ण हो अथवा आलोच्य विषय प्रलम्ब हो तो वह निषद्या की अनुज्ञा लेकर आलोचना करता है। यह स्वपक्ष की आलोचना विधि है । परपक्ष अर्थात् साध्वी । उसकी आलोचना विधि इससे कुछ भिन्न है । साध्वी साधु के समक्ष निर्जन में नहीं किन्तु जहां लोग दिखाई देते हों, वैसे एकान्त स्थान में आलोचना करती है । वह आचार्य की निषद्या की स्थापना नहीं करती और स्वयं खड़ी खड़ी आलोचना करती है । चतुष्कर्णा परिषद् - एकान्त और अनापात ( जहां लोगों का आवागमन न हो ) स्थान में गौरव से रहित होकर अकेला साधु गुरु के समक्ष आलोचना करता है अथवा एकान्त और अनापात स्थान पर अकेली साध्वी प्रवर्तिनी के पास गौरव से रहित होकर आलोचना करती है, यह चतुष्कर्णा परिषद् है । ( आचार्य अथवा प्रवर्तिनी के दो कान तथा आलोचना करने वा मुनि या साध्वी के दो कान ।) षट्कर्णा परिषद् - एकान्त में किन्तु जहां बहुत लोग दिखाई दें, ऐसे स्थान में एक साध्वी अचपलता से जब दूसरी साध्वी के साथ स्थविर गुरु के पास आलोचना करती है तब वह षट्कर्णा परिषद् होती है। ज्ञान- दर्शन से सम्पन्न, उचित और अनुचित का विवेक देने में सक्षम, अवस्था से परिणत, इंगित और आकार से ' संपन्न - ये उस सहगामिनी अपर साध्वी की अर्हताएं हैं। अष्टकर्णा परिषद्-एकान्त किन्तु जहां बहुत लोग दिखाई दें, ऐसे स्थान में एक साध्वी दूसरी साध्वी को साथ लेकर दूसरे साधु से युक्त तरुण गुरु के पास चपलता रहित होकर आलोचना करती है - यह अष्टकर्णा परिषद् है । १६. आलोचनाकाल में सहवर्ती मुनि की अर्हता नाणेण दंसणेण य, चरित्त-तव- विणय-आलयगुणेहिं । वयपरिणामेण य अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो ॥ (बृभा ३९८) आलोचना श्रवणकाल में आचार्य के पास रहने वाला मुनि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय से संपन्न, आलयगुण Jain Education International आगम विषय कोश - २ प्रतिलेखना आदि क्रियाओं में जागरूक तथा उपशम गुण से संपन्न, अवस्था से परिणत और अभिगम - शास्त्र के सही अर्थ का ज्ञाता हो । १७. साध्वी की प्राचीन आलोचनाविधि तो जाव अज्जरक्खिय, सट्टण पगासयंसु वतिणीओ " असती कडजोगी पुण, मोत्तूणं संकिताई ठाणाई । आइणे धुवकम्मिय, तरुणी थेरस्स दिट्ठिपधे ॥ सुघर देउलुजाण - रण्ण पच्छण्णुवस्सयस्संतो । एय विवज्जे ठायंति, तिण्णि चउरोऽहवा पंच ॥ थेरतरुणेसु भंगा, चउरो सव्वत्थ परिहरे दिट्ठि । दोहं पुण तरुणाणं, थेरे थेरी य पच्चुरसं ॥ थेरो पुण असहायो, निग्गंथी थेरिया वि ससहाया । सरिसवयं च विवज्जे, असती पंचम पडुं कुज्जा ॥ (व्यभा २३६७, २३६९ - २३७२ ) आर्यरक्षित के समय में भी यदि साध्वी को मूलगुण संबंधी अपराध की ओलाचना करनी होती तो वह साध्वी के पास ही करती थी । गीतार्थ साध्वी के न होने पर कृतयोगी (छेदश्रुतधर) स्थविर के पास आलोचना की जाती थी। साध्वी द्वारा आलोचना उचित स्थान में की जाती है। शून्यगृह, देवकुल, उद्यान, अरण्य, प्रच्छन्न स्थान, उपाश्रय का मध्यभाग - इन शंकास्थानों का वर्जन किया जाता है। जहां ध्रुवकर्मिक दिखाई देता हो किन्तु आलोचना सुनता न हो, वहां यवनिकान्तरित आलोचना की जाती है। यवनिका का अवकाश न हो तो सर्वत्र दृष्टिक्षेप का परिहार किया जाता है-आलोचिका साध्वी की दृष्टि भूमि पर टिकी रहती है। स्थविरा साध्वी स्थविर या तरुण साधु के पास आलोचना करे तो उसके साथ एक साध्वी अवश्य रहे । साध्वी और साधु- दोनों तरुण हों तो उनके पास एक स्थविर और एक स्थविरा रहे। सदृश वय वाले सहायक का नियमतः वर्जन किया जाए। यदि ऐसा संभव न हो तो आलोचिका व आलोचनार्ह के सदृश वय वाले दो सहायक तथा एक पटु क्षुल्लक या क्षुल्लिका भी पास में रहे । इस प्रकार आलोचना काल में तीन अथवा चार अथवा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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