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________________ आज्ञा ८८ २. गुरुआज्ञा बलवती ..... आणा बलिया, आणासारो य गच्छवासो उ। मोत्तुं आणापाणुं, सा कज्जा सव्वहिं जोगे ॥ (व्यभा २०७४) गुरु की आज्ञा बलवती होती है। गुरुकुलवास आज्ञासार वाला है (गच्छ में आज्ञा ही प्रधान है ) । आन-प्राण (श्वासोच्छ्वास) के अतिरिक्त शेष सारी प्रवृत्तियां गुरु की आज्ञा से करनी चाहिए । ३. उपसम्पदा और आज्ञा भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा- - कं अज्जो ! उवसंपज्जित्ताणं विहरसि ? जे तत्थ सव्वराइणिए तं वएज्जा । राइणिए तं वज्जा - अह भंते! कस्स कप्पाए ? जे तत्थ सव्वबहुसुए तं वएज्जा, जं वा से भगवं वक्खड़ तस्स आणा-उववाय- वयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामि । (व्य ४/१८) भिक्षुगण से निष्क्रमण कर अन्य गण की उपसम्पदा स्वीकार कर विहरण करे, उसे देखकर कोई साधर्मिक पूछेआर्य ! तुम किसकी उपसम्पदा स्वीकार कर विहरण कर रहे हो ? वह उस गण में जो सर्वरानिक है, उसका नाम बताए। रानिक उसे पुनः पूछे - भदंत ! तुम किसकी निश्रा में हो ? उस गच्छ में जो सर्वाधिक बहुश्रुत हो, उसका नाम बताए तथा यह भी बताए कि वे जिसकी आज्ञा में रहने का कहेंगे, उसी की आज्ञा में, उसके समीप, उसके वचननिर्देश के अनुसार रहूंगा। ४. आज्ञा में ही चारित्र की अवस्थिति अवराहे लहुगतरो, आणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु । आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ॥ (बृभा ९२४) चारित्र संबंधी अतिचार होने पर लघुतर और आज्ञा भंग होने पर गुरुतर प्रायश्चित्त आता है। जहां जीवोपघात होता है, वहां गुरुतर दंड युक्तियुक्त हो सकता है किन्तु Jain Education International आगम विषय कोश - २ आज्ञाभंग में जीवोपघात नहीं होता, फिर गुरुतर दंड क्यों ? आचार्य कहते हैं- भगवान् की आज्ञा में ही चारित्र है, आज्ञा का भंग होने पर क्या चारित्र भंग नहीं होता ? सब कुछ भंग हो जाता है। ५. गुरुआज्ञा से उपधिग्रहण भिक्खा ओसरणम्मि व, अपुव्ववत्था उ ताउ दट्ठूणं । गुरुकहण तासि पुच्छा, अम्हमदिन्ना न वा दिट्ठा ॥ सच्छंद गेण्हमाणीण, होंति दोसा जतो तु इच्चादी । इति पुच्छिउं पडिच्छा, न तासि सच्छंदता सेया ॥ (व्यभा २८४१, २८६६) वृषभ भिक्षावेला या समवसरण में नवीन वस्त्र- धारिणी साध्वी को देखकर गुरु से निवेदन करते हैं फिर गुरु उन्हें जानकारी हेतु निर्देश देते हैं, तब वृषभ उस साध्वी के पास जाकर पृच्छा करते हैं - आर्ये! हमने ये वस्त्र - पात्र आदि तुमको नहीं दिये और न ही किसी को देते हुए देखा। ऐसा पूछने पर भी जो आर्या निवेदन नहीं करती है, वह प्रायश्चित्त की भागी होती उपधि (वस्त्र - पात्र) या शिष्य, जो भी प्राप्त हो, उसका गुरु से निवेदन करना होता है। स्वच्छन्दता से वस्तु-ग्रहण करने में अनेक दोष हैं, अतः प्रत्येक वस्तु आचार्य की आज्ञा से ही ग्रहण करे और ग्रहण कर आचार्य को निवेदित करे । स्वच्छन्दता कहीं भी श्रेयस्करी नहीं है। ० गुरुआज्ञा से विकृति - ग्रहण और तप वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छेज्जा गाहावइकुलं भत्ता वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, नो से कप्पड़ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वाजं वा पुरओ काउं विहरड़, कप्पड़ से आपुच्छिउं । ..... अण्णयरिं विगई आहारित्तए, नो से कप्पड़ अापुच्छित्ता । अणयरं ओरालं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता''। (दशा ८ परि सू २७१, २७३, २७५ ) वर्षावास में स्थित मुनि गृहपति के घर में आहारपानी के लिए जाना- प्रवेश करना चाहे तो वह आचार्य, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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