SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य ८४ आगम विषय कोश-२ अनुशासनीय नहीं होते)। आचार्य अपने शिष्यों को चार प्रकार की विनयप्रतिउत्तरवर्ती तीन पुरुषयुग और शिष्यप्रशिष्य उसके पत्तियां ग्रहण कराकर उऋण हो जाते हैंआभाव्य हैं। यहां दास-खर का उदाहरण ज्ञातव्य है- १. आचारविनय ३. विक्षेपणाविनय दासेण मे खरो कीतो, दासो वि मे खरो वि मे। २. श्रुतविनय ४. दोषनिर्घातन विनय। मेरे दास ने गधा खरीदा। दास भी मेरा, गधा भी मेरा। ० आचारविनय : सामाचारी में नियोजन ३०. पश्चात्कृत शिष्य : आभवद् व्यवहार आयारविणए चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-संजमगिहिलिंगं पडिवज्जति, जो ऊ तद्दिवसमेव जो तं तु। सामायारी यावि भवति, तवसामायारी यावि भवति, उवसामेती अण्णो, तस्सेव ततो पुरा आसी॥ गणसामायारी यावि भवति, एगल्लविहारसामायारी यावि एण्हिं पुण जीवाणं, उक्कडकलुसत्तणं वियाणेत्ता। भवति॥ तो भद्दबाहुणा ऊ, तेवरिसा ठाविता ठवणा॥ "संजमं समायरति स्वयं, परं च गाहेति, समाचारपरलिंग निण्हवे वा, सम्मइंसण जढे तु संकते। यति सीतंतं परं, उज्जमंतंच अणवहति"तवो पक्खियतद्दिवसमेव इच्छा, सम्मत्तजुए समा तिण्णि॥ पोसधिएसुतवं कारवेति परं, सयंच करेति "भिक्खायरि ___(व्यभा १८६३-१८६५) याए निउंजंति परं, सयंच, सव्वंमि तवे परंसयंचणिसृजति। जो मुनि उत्प्रव्रजित हो गृहलिंग को स्वीकार करता गणसामायारी गणं सीतंतं पडिलेहणपप्फोडणबालहै, उसे उसी दिन जो आचार्य या साधु उपशांत कर प्रव्रज्या दुब्बलगिलाणादिसुवेतावच्चेय सीतंतं गाहेति उज्जमावेति के लिए पुन: तैयार कर देते हैं तो वह प्रव्रजित होकर उपशामक ___ एगल्लविहारपडिमादिसुसयमण्णं वा पडिवज्जावेति। आचार्य का शिष्य होता है, मूल आचार्य का नहीं होता-यह (दशा ४/१५ चू) प्राचीन विधि है। आचार-विनय के चार प्रकार हैंअर्वाचीन विधि-जीवों की उत्कट कलुषता को जानकर समयज्ञ १. संयम सामाचारी-स्वयं संयम का समाचरण करना, दूसरों आचार्य भद्रबाहु ने तीन वर्ष की मर्यादा की-साधुवेश का से संयम का आचरण करवाना, संयम में विषण्ण होने वालों त्याग कर पुन: दीक्षित होने वाला तीन वर्ष तक मूल आचार्य को संयम सामाचारी में स्थित करना तथा उद्यमशील का का ही शिष्य होता है, तीन वर्ष से पहले उसका पूर्व पर्याय अनुबंहण करना। छिन्न नहीं होता। जो उत्प्रव्रजित होकर परतीर्थिकों के पास २. तप सामाचारी-बारह प्रकार के तप में स्वयं को तथा दूसरों अथवा निह्नवों के पास उसी दिन प्रवजित होता है. उसका को योजित करना। पाक्षिक पौषध आदि करना। भिक्षाचर्या में पूर्व संयम पर्याय छिन्न हो जाता है और वह प्रव्रजित करने नियोजित करना। वाले का शिष्य हो जाता है। जो सम्यक्त्व सहित परतीर्थिकों ३. गणसामाचारी-प्रतिलेखना आदि की व्यवस्था में प्रमाद न में प्रव्रजित होता है तो उसका पूर्व संयम-पर्याय तीन वर्षों होने देना। शैक्ष, दुर्बल और ग्लान की वैयावृत्त्य संबंधी तक रहता है, पश्चात् वह छिन्न हो जाता है। व्यवस्था बनाये रखना, सेवार्थियों को प्रोत्साहित करना। ३१. आचार्य की ऋणमुक्ति के उपाय ४. एकलविहारसामाचारी-एकलविहार आदि प्रतिमाओं को आयरिओ अंतेवासिं इमाए चउव्विधाए विणय स्वयं स्वीकार करना तथा दूसरों को स्वीकार करवाना। पडिवत्तीए विणएत्ता निरिणत्तं गच्छति, तं जहा-आयार- ० श्रुत विनय : निःशेष वाचना विणएणं, सुयविणएणं, विक्खेवणाविणएणं, दोसनिग्घा- सुतविणए चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुतं वाएति, यणाविणएणं॥ (दशा ४/१४) अत्थं वाएति, हियं वाएति, निस्सेसं वाएति॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy