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________________ आचार्य आगम विषय कोश-२ जिसने निशीथ का सूत्रतः पूर्ण अध्ययन किया हो, गुरु के गणधारण केवल निर्जरा के लिए करना चाहिए, पूजापास अर्थ को ग्रहण किया हो, परावर्त्तना और अनप्रेक्षा द्वारा प्रतिष्ठा के लिए नहीं। गणधारक उस महान् सरोवर के सूत्रार्थ का अच्छा अभ्यास किया हो, जो विधि-निषेध के समान होना चाहिए, जो विकस्वर कमलों से शोभित हो। विधान में कुशल हो, पांच महाव्रत और रात्रिभोजन-विरमण में जैसे समुद्र विजृम्भमाण मीन-मकरों से संक्षुब्ध नहीं होता, जागरूक हो-इस प्रकार जो पठित, श्रुत, गुणित, धारित, वैसे ही वह भी परवादियों से क्षुब्ध नहीं होता। वह गण का यथोक्तकरण और छह व्रतों में अप्रमत्त-इन छह स्थानों से संग्रहण करता हुआ क्लांत नहीं होता। विशाल पद्मसरोवर की सम्पन्न होता है, वही तीर्थंकरों और गणधरों द्वारा आचार्य पद के भांति उसके पास भी सदा जनसंकुलता रहती है। लिए अनुज्ञात है। वह आहार, वस्त्र आदि की लब्धि से सम्पन्न होता २. प्रशस्य आचार्य : आगाढप्रज्ञ आदि है। उसके वचन आदेय होते हैं, शरीर के अवयव परिपूर्ण गणधारिस्साहारो, उवकरणं संथवो च उक्कोसो। होते हैं। वह विद्वज्जनपूज्य और मतिमान् होता है। ऐसा गणधारी ही अपने शिष्यों और सब लोगों की दृष्टि में पूज्य सक्कारो सीसपडिच्छगेहि गिहि-अन्नतित्थीहिं॥ होता है। सुत्तेण अत्थेण य उत्तमोउ, आगाढपण्णेसुय भावितप्पा। जच्चन्नितोवा कत्थयंतो॥ ० चन्द्र, सरोवर एवं चक्री की उपमा (व्यभा १४०२, १४०३) सन्निसेन्जागतं दिस्स, सिस्सेहि परिवारितं। गणधारी का आहार, उपकरण, संस्तव-ये सब उत्कृष्ट कोमुदीजोगजुत्तं वा, तारापरिवुडं ससिं॥ गिहत्थपरतित्थीहिं, संसयत्थीहि निच्चसो। होते हैं । वह शिष्यों, प्रतीच्छकों, गृहस्थों और अन्यतीर्थिकों सेविजंतं विहंगेहिं, सरं वा कमलोज्जलं॥ द्वारा सत्कृत-पूजित होता है। खग्गूडे अणुसासंतं, सद्धावंतं समुज्जते। जो सूत्र और अर्थ का पारगामी है, जो आगाढप्रज्ञ शास्त्रों गणस्स अगिला कुव्वं, संगहं विसए सए॥ से भावित है (जिन शास्त्रों के अध्ययन में गहन प्रज्ञा का इंगितागारदक्खेहिं, सदा छंदाणुवत्तिहिं । उपयोग करना होता है, उन गहन-गंभीर शास्त्रों के तात्पर्यार्थ को पकड़ने में जिसकी बुद्धि निपुण है), जो आभिजात्य है, अविकूलितनिद्देस, रायाणं व अणायगं॥ जिसका चिन्तन विशद है, ऐसे गुणसम्पन्न गणधारी की सब (व्यभा २०००-२००३) संस्तुति करते हैं। कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में तारागण से परिवृत चन्द्रमा की भांति सुन्दर निषद्या पर उपविष्ट, शिष्यों से परिवृत ३. गणधारण का लक्ष्य : सागर की उपमा __ आचार्य शोभित होते हैं। किं नियमेति निज्जरनिमित्तं न उ पूयमादिअट्ठाए। गृहस्थों, परतीर्थिकों और जिज्ञासु साधुओं से निरन्तर धारेति गणं जदि पहु, महातलागेण सामाणो॥ सेव्यमान आचार्य ऐसे लगते हैं मानो पक्षी कमलों से परिमण्डित तिमि-मगरेहि न खुब्भति, जहंबुनाधो वियंभमाणेहिं। सरोवर का आसेवन कर रहे हों। सोच्चिय महातलागो, पफल्लपउमं च जं अन्नं॥ __आचार्य स्वच्छन्द व्यक्तियों को अनुशासित करते हैं, परवादीहि न खुब्भति, संगिण्हंतो गणंचन गिलाति। अनशासितों में (गण के अनुशासितों में (गण के प्रति) महान् श्रद्धा समुत्पन्न करते होती य सदाभिगमो, सत्ताण सरोव्व पउमड्डो॥ हैं। वे आत्मोत्साह से (तथा निर्जरार्थिता से) शिष्यों आदि आहारवत्थादिसुलद्धिजुत्तं, आदेज्जवक्कंच अहीणदेहं। का संग्रहण कर यथाशक्ति गण की श्रीवृद्धि करते हैं। सक्कारभज्जम्मि इमम्मिलोए, पूर्यति सेहाय पिहुज्जणाय॥ इंगिताकार-सम्पन्न और छन्दानुवर्ती (गुरु के अभिप्राय (व्यभा १३६९-१३७१, १३९९) के अनुकूल वर्तन करने वाले) शिष्य गुरु-आज्ञा की सदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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