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________________ आचार ६० प्राकृतसूत्र का संस्कृतीकरण, उसमें मात्रा और बिंदु की न्यूनाधिकता तथा उसमें उसी के अर्थवाची अन्यपदों का प्रयोग करने से सूत्रभेद होता है। यथा धम्म मंगलमुक्क, अहिंसा संजमो तवो। (द १/१) संस्कृत - धर्मो मंगलमुत्कृष्टम् " मात्रा - बिन्दु – धम्मे मंगले उक्किट्ठ - अन्य अर्थपद - पुण्णं कल्लाणमुक्कोसं, दया संवर णिज्जरा । जो सूत्र को अन्यथा नहीं करता, किन्तु उसमें अन्य अर्थ की कल्पना करता है, उसके चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है । अर्थभेद का उदाहरण आवंति के आवंति लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति................. |(आ ४/२० ) - दार्शनिक जगत् में कुछ श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी मतवाद का निरूपण करते हैं। अर्थभेद - अवंती - जनपद । केया - रज्जु । वंती कुएं में गिर गई । लोयंसि समणा य माहणा य-लोक में श्रमण और ब्राह्मण (कुएं में उतर कर ) परस्पर विवाद करते हैं। T इसी प्रकार अन्य सूत्रों का अन्यथा अर्थ करने पर प्रायश्चित्त आता है। सूत्र में अयुज्यमान अर्थ की संयोजना करने से केवल विराधना ही होती है, ज्ञान आदि गुणों की प्राप्ति नहीं होती । उभय (सूत्रार्थ) भेद - जो सूत्र का अन्यथा उच्चारण करता है और अर्थ का भी अन्यथा व्याख्यान करता है, उसे मिश्र (सूत्रभेद और अर्थभेद में निर्दिष्ट चतुर्लघु और चतुर्गुरु) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उभयभेद के उदाहरण १. द्रुमपुष्पिका का प्रथम श्लोक धम्मो मंगलमुक्कट्ठे अहिंसा संजमो तवो। (द १/१ ) भिन्न श्लोक - धम्मो मंगलमुक्किट्ठे, अहिंसा डुंगरमस्तके । २. अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा । (द १/४) भिन्न श्लोक - अहाकडेहिं रंधंति, कट्ठेहिं रहकारिया । ३. राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे । (द ३/२) भिन्न श्लोक - रण्णो भत्तंसिणो जत्थ, गद्दहो तत्थ खज्जति । ९. दर्शनाचार : निःशंकता आदि संसयकरणं संका, कंखा अण्णोण्णदंसणग्गाहो। संतंमि वि वितिगिच्छा, सिज्झेज्ज ण मे अयं अट्ठो ॥ Jain Education International आगम विषय कोश - २ .......संक .... । सा दुविहा देसे सव्वे य। देसे जहा - तुल्ले जीवत्ते कहमेगे भव्वा एगे अभव्वा । सव्वसंकत्ति सव्वं दुवालसंगं गणिपिडगं पागयभासाणिबद्धं मा णं एतं कुसलकप्पियं होज्जा । संकिणो असंकिणो य दोसगुणदीवणत्थं उदाहरणंजहा ते पेयापाया-दारगा । ( निभा २४ चू) ० शंका - तत्त्व में संशय करना। (शिष्य ने पूछा-- शंका ज्ञान से भिन्न पदार्थ है या अभिन्न ? गुरु ने कहा- जैसे घट पट का अर्थांतर है, वैसे यह शंका विज्ञान का अर्थांतर नहीं है। अंगुलि के वक्रीकरण की भांति यह अनर्थांतर है ।) • कांक्षा-अन्यान्य दर्शनों की अभिलाषा । विचिकित्सा - विद्यमान पदार्थ के फल में संदेह करना। मैं ब्रह्मचर्य पालन, केशलुंचन, भूमिशयन, परीषहसहन आदि की कठोर साधना करता हूं पर मुझे इनका फल मिलेगा या नहीं, कौन जाने ? इस प्रकार की मतिविप्लुति विचिकित्सा है । o शंका के दो प्रकार हैं देशशंका - जीवत्व सबमें समान है, फिर भी उनमें कुछ भव्य कुछ अभव्य हैं। यह कैसे ? सर्वशंका - प्राकृत भाषा में निबद्ध सम्पूर्ण द्वादशांग गणिपिटक कुशलकल्पित नहीं है । शंका से हानि होती है और निःशंकता से लाभ होता है - यह तथ्य प्रकाशित करने के लिए पेयापायक बच्चों का दृष्टांत है। ० पेयापान दृष्टांत दोवि लेहसालाए पढंति । भोयणकाले आगताण दोह वि हिंतो णिविट्ठाण मासकणफोडिया पेया दिण्णा । तत्थ मुयमातिओ चिंतेइ – मच्छित्ता इमा । ससंकिओ पियति । तस्स सकाए वग्गुलियावाही जातो, मतो य। बितिओ चिंतेति - ण ममं माता मच्छियाओ देति । णिस्संकितो पिबति जीवितो य । (निभा २४ की चू) दो भाई थे । एक दिन वे पाठशाला से लौटे। मां द्वारा दोनों को पेया परोसी गई, जिसमें उड़द के कण थे। जिसकी सौतेली मां थी, उस भाई ने सोचा-ये मक्खियां हैं। सशंक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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