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________________ अनुयोग अनुयोगद्वारों उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नप का क्रम यही है क्योंकि असमीपस्थ का निक्षेप नहीं किया जाता । निक्षेप किए बिना व्याख्या नहीं की जाती और नयमत से रहित का अनुगम नहीं होता । उपक्रम संबंध रूप होता है उससे प्रारम्भ की भूमिका बनाकर उस पद को निश्चित अर्थ में स्थापित किया जाता है, फिर नाम, स्थापना आदि निक्षेपों से युक्त शास्त्र के अर्थ को नाना प्रकार के नयों से व्याख्यायित किया जाता है । ३. उपक्रम / उपोद्घात परिभाषा सत्यस्सो बक्कमणं उबनकमो तेण तस्मि व तओ वा । सत्थसमीवीकरणं आणवणं नाससम्म || (विभा ९११) उबक्कमो णासस्स अपत्तावत्वापावणं । प्रकार (आवचू १ पृ ५० 50) शास्त्र का प्रारम्भ करना उपक्रम कहलाता है । वह तीन प्रकार से होता है १ प्रतिपादन का २ शिष्य की जिज्ञासा ३ शिष्य की विनम्रता । प्रारम्भिक भूमिका बताकर ग्रन्थ को निक्षेप के योग्य बना देना उपक्रम है । - निक्षेप की अप्राप्त अवस्था का प्रापक है उपक्रम । नासस्स व संबंधणमुवनकमोऽयं तु सुत्तवखाए। संबंधोवरघाओ भण्णइ जं सा तदंतम्मि ॥ ( विभा ९९४ ) अध्ययन से संबंधित नाम आदि निक्षेपों का सम्बन्ध जोड़ना उपक्रम कहलाता है और जब सूत्र की व्याख्या के साथ उनका सम्बन्ध जोड़ा जाता है तब उसे उपोद् घात कहते हैं। उवोग्धातो णाम उद्देसनिग्गमादी णिरुवणं । मेघच्छन्नो यथा चंद्रो न राजति नभस्तले । उपोद्घातं विना शास्त्रं न तथा भ्राजते विधौ ॥ + ( आवघू १ पृ ८४) उद्देश, निर्गम आदि का निरूपण उपोद्घात कहलाता Jain Education International है । जैसे आकाश में बादलों से आच्छादित चन्द्रमा शोभित नहीं होता, वैसे ही उपोद्घात के बिना अपने विधि-विधान में शास्त्र शोभित नहीं होता । अर्थाधिकार उवक्कमे छव्विहे पण्णत्ते तं जहा आणुपुथ्वी नामं पमाणं वत्तव्वया अत्थाहिगारे समोयारे । ( अनु १०० ) उपक्रम के छह प्रकार हैं आनुपूर्वी, -आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार | वक्तव्यता अझयाइसु सुक्तपगारेण तुत्तविभागेण वा इच्छा परूविज्जति सा वत्तव्वया भवति । (अनुबू पृ ८५) एक विषय की प्ररूपणा, प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन वक्तव्यता कहलाता है । बत्तव्वया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा ससमयवंतव्वया परसमयवत्तव्वया ससमय परसमयवत्तव्वया । विज्जइ । ( अनु ६०५ ) वक्तव्यता के तीन प्रकार हैं- स्वसमय वक्तव्यता, परसमय वक्तव्यता और स्वसमय-परसमय वक्तव्यता । "ससमयवत्तव्वया- - जत्थ णं ससमए आघ( अनु ६०६) ..... यत्राध्ययने सूत्रे धर्मास्तिकायद्रव्यादीनां आत्मसमयस्वरूपेण प्ररूपणा क्रियते । (अनुबू पृ ५) अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करना स्वसमय वक्तव्यता है । जैसे – धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के स्वरूप का प्रतिपादन अपने सिद्धान्त के अनुसार करना । णं आषविज्जइ''''। परसमए ( अनु ६०७ ) यत्र पुनरध्यवनादिषु जीवद्रव्यादीनां एकान्तग्राहेण नित्यत्वमनित्यत्वं वा परसमयरूपेण प्ररूपणा क्रियते । ( अनुचू पृ ८५) अन्यतीथकों के सिद्धान्त का प्रतिपादन परसमय वक्तव्यता है । जैसे जीव आदि द्रव्य एकान्त नित्य हैं अथवा एकान्त अनित्य हैं । ...परसमयवत्तव्वया जत्थ आघविज्जइ । ससमय-परसमयवत्तव्वया जत्थ ससमए परसमए ( अनु ६०८ ) अपने तथा अन्यतीर्थिकों के सिद्धान्त का प्रतिपादन करना उभयरूप वक्तव्यता है । अर्थाधिकार अत्थाहिगारे जो जस्स अज्झयणस्स अत्याहिगारो । ( अनु ६१० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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