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________________ एकत्व अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा विविध गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न हो, पृथक्-पृथक् रही है, उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। रूप से समूचे विश्व का स्पर्श कर लेते हैं-सभी स्थानों सब बन्धनों से मुक्त, 'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं' में उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार एकत्वदर्शी, गृहत्यागी एवं तपस्वी भिक्षु को जारिसा माणसे लोए, ताया ! दीसंति वेयणा । विपुल सुख होता है। एत्तो अणंतगुणिया, नरएसु दुक्खवेयणा ॥ एकोऽहं न च मे कश्चिन, नाहमन्यस्य कस्यचित् । (उ १९/७३) न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ दृश्योऽस्ति यो मम ॥ मनुष्य लोक में जैसी वेदना है, उससे अनन्तगुनी (उशा प ३०७) दुःखदायी वेदना नरक में है। मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है । मैं किसी का नहीं 1. सव्वभवेसु अस्साया, वेयणा वेइया मए। हूं। मैं उसको नहीं देखता, जिसका मैं हैं। जो मेरा है, निमेसंतरमित्तं पि, जं साया नत्थि वेयणा ।। वह दृश्य नहीं है। (उ १९७४) एगभूओ अरण्णे वा, जहा उ चरई मिगो। मैंने सभी जन्मों में दुःखमय वेदना का अनुभव किया एवं धम्म चरिस्सामि, संजमेण तवेण य॥ है। वहां एक निमेष का अन्तर पड़े उतनी भी सुखमय (उ १९/७७) वेदना नहीं है। जैसे जंगल में हरिण एकाकी विचरता है, वैसे मैं भी सारीरमाणसा चेव, वेयणाओ अणंतसो। संयम और तप के साथ एकाकी भाव को प्राप्त कर धर्म मए सोढाओ भीमाओ, असई दुक्खभयाणि य ।। का आचरण करूंगा। (उ १९५४५) न तस्स दुक्खं विभयंत्ति नाइओ, मैंने संसार में भयंकर शारीरिक और मानसिक न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । वेदनाओं को अनन्त बार सहा है और अनेक बार दुःख एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, एवं भय का अनुभव किया है। कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ।। ५. एकत्व अनुप्रेक्षा (उ १३/२३) संबंधिसंगविजताय एगत्तमणुपेहेति ज्ञाति, मित्रवर्ग, पुत्र और बान्धव-कोई दुःख नहीं बंटा सकता । व्यक्ति स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता एक्को करेति कम्मं, फलमवि तस्सेक्कओ समणुहोइ । है। क्योंकि कर्म केवल कर्ता का ही अनुगमन करता है। एक्को जायइ मरइ य, परलोयं एक्कओ जाइ। (दअचू पृ १८) चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । जीव अकेला कर्म करता है, अकेला उसका फल कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ॥ भोगता है, अकेला जन्मता है, अकेला मरता है और (उ १३/२४) अकेला ही परलोक में जाता है। इस प्रकार पारिवारिक यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर ममत्व-विसर्जन के लिए एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़कर केवल अपने किये किया जाता है। कर्मों को साथ लेकर अकेला ही सुखद या दुःखद परभव सुहं वसामो जीवामो, जेसि मो नत्थि किंचण । में जाता है। मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचण ।। संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्म । बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खुणो । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उति ।। सव्वओ विप्पमुक्कस्स, एगंतमणुपस्सओ॥ (उ ४/४) (उ ९/१४,१६) संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो साधारण वैराग्य से ओतप्रोत महाराज नमि अभिनिष्क्रमण के कर्म (इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी-ऐसा समय ब्राह्मण के रूप में उपस्थित देवेन्द्र को एक प्रश्न के कर्म) करता है, उस कर्म के फल-भोग के समय वे बन्धुजन उत्तर में कहते हैं जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, बन्धुता नहीं दिखाते-उसका भाग नहीं बंटाते। कर्म वे सुखपूर्वक रहते हैं और सुख से जीते हैं । मिथिला जल करने वाले को ही फल भुगतना पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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