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________________ सिद्ध ७०४ स्त्रीलिगसिद्ध.. वे गुरु के पास लिंग ग्रहण करते हैं। यदि वे एकाकी भवति । तं तिविह-वेदो सरीरनिव्वत्ती णेवच्छंच, इह विहार के योग्य हैं और उसके इच्छुक भी हैं तो एकाकी सरीरनिव्वत्तीए अधिकारो, ण वेद वच्छेहिं। तत्थ वेदे विहार करते हैं, अन्यथा गच्छ में विहरण करते हैं। इस कारणं-जम्हा खीणवेदो जहण्णेणं अंतोमुहत्तातो उक्कोअवस्था में सिद्ध होने वाले स्वयंबुद्धसिद्ध कहलाते हैं। सेणं देसूणपूष्वकोडीतो सिज्झति, जेवच्छस्स य अणियतत्त सहत्ति-स्वयमात्मनैव सम्बुद्धः-सम्यगवगततत्त्वः णतो तम्हा ण तेहिं अहिकारो। सरीरकारणणिवत्ती पुण सहसम्बुद्धो, नान्येन प्रतिबोधित इत्यर्थः, अथवा सहसा-- णियमा वेदुदयातो णामकम्मुदयाओ य भवति। तम्मि जातिस्मृत्यनन्तरं झगित्येव बुद्धः। (उशाव प ३०६) सरीरनिव्वत्तिलिंगे ठिता सिद्धा ततो वा सिद्धा इथिलिंग सह का अर्थ- स्वयं और संबुद्ध का अर्थ- सम्यक सिद्धा। एवं पुरिस...."लिंगा वि भाणितव्वा। तत्त्व का ज्ञाता। जो स्वयं तत्त्व को जानता है, किसी (नन्दीचू पृ २७) अन्य के द्वारा प्रतिबोधित नहीं है, वह सहसंबुद्ध है। स्त्रीलिंग का अर्थ है-स्त्री का लिंग या चिह्न । यह इसका वैकल्पिक अर्थ है --सहसा संबुद्ध अर्थात् जातिस्मृति स्त्री का उपलक्षण है। लिंग के तीन अर्थ हैं-वेद (कामके अनन्तर शीघ्र ही संबुद्ध होने वाला। विकार), शरीर-रचना और नेपथ्य (वेशभूषा)। यहां ते य दुविहा-तित्थगरा तित्थगरवतिरित्ता वा । इह शरीर-रचना प्रासंगिक है, वेद और नेपथ्य नहीं। क्षीणवइरित्तेहिं अधिकारो। (नन्दीचू पृ २६) वेद व्यक्ति जघन्य अन्तर्महत और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि स्वयंबुद्ध के दो प्रकार हैं-तीर्थकर और तीर्थंकर से में अवश्य सिद्ध हो जाता है। नेपथ्य के सन्दर्भ में सिद्धि अनियत है, इसलिए यहां वेद और नेपथ्य का प्रसंग नहीं इतर (साधु) । प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थंकर से इतर विवक्षित है। शरीर की आकाररचना नियमत: वेदमोहनीय और शरीर नामकर्म के उदय से होती है। जो स्त्री की शरीर६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध रचना में मुक्त होते हैं, वे स्त्रीलिंगसिद्ध हैं। जो पुरुष किसी एक निमित्त से संबुद्ध हो मुक्त होने वाले। की शरीर-रचना में मुक्त होते हैं, वे पुरुषलिंगसिद्ध हैं। (द्र. प्रत्येकबुद्ध) ___ सम्मूच्छिमादयो भवस्वभावत एव न सम्यग्दर्शनादिकं ७. बुद्धबोधितसिस यथावत् प्रतिपत्तुं शक्नुवन्ति, ततो न तेषां निर्वाणसम्भवः, जे सतंबुद्धेहि तित्थकरादिएहिं बोहिता, पत्तेयबुद्धेहिं स्त्रियस्तु प्रागुक्तप्रकारेण यथावत्सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयबा कविलादिएहि बोधिता ते बुद्धबोधिता। अहवा बुद्ध- सम्पद्योग्याः, ततस्तासां न निर्वाणाभावः । अपि चबोधिएहि बोधिता बुद्धबोधिता, एवं सुहम्मादिएहि भजपरिसर्पा द्वितीयामेव पृथिवीं यावद् गच्छन्ति, न परत:, जंबणामादयो भवंति । अहवा बुद्ध इति-प्रतिबुद्धा, तेहिं परपृथिवीगमन हेतूतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात्, तृतीयां प्रतिबोधिता बूद्धबोधिता, प्रभवादिभिराचार्यः । एतभावे ___यावत् पक्षिणः, चतुर्थी चतुष्पदाः, पञ्चमीमुरगाः, अथ च द्विता एतातो वा सिद्धा बुद्धबोधितसिद्धा। सर्वेऽप्यूर्ध्वमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति, तन्नाधोगति (नन्दीच पृ २६,२७) विषये मनोवीर्यपरिणतिवैषम्यदर्शनादर्वगतावपि तदैषम्य जो बुद्धबोधित होकर मुक्त होते हैं, वे बुद्धबोधित- तथा स सति सिद्ध स्त्रीपंसामधोगतिवैषम्येऽपि निर्वाणं सिद्ध हैं। बुद्धबोधित के चार अर्थ किये गये हैं----- समम् । (नन्दीमवृ प १३३) १. स्वयंबुद्ध तीर्थंकर आदि के द्वारा बोधि प्राप्त । सम्मूच्छिम जीव स्वभाव से ही सम्यक दर्शन आदि २. कपिल आदि प्रत्येकबुद्ध के द्वारा बोधि प्राप्त । की आराधना नहीं कर सकते, अत: उनका निर्वाण ३. सुधर्मा आदि बुद्धबोधित के द्वारा बोधि प्राप्त । असंभव है। ४. आचार्य के द्वारा प्रतिबुद्ध प्रभव आदि आचार्य से स्त्रियां ज्ञान-दर्शन-चारित्र- इस रत्नत्रयी की बोधि प्राप्त । आराधना कर सकती हैं। अतः उनके लिए निर्वाण ८,९. स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुषलिगसिद्ध असंभव नहीं है। इत्थीए लिंगं इथिलिंग, इत्थीए उवलक्खणं ति वृत्तं भुजपरिसर्प दूसरी नरकभूमि तक, पक्षी तीसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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