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________________ सम्यक्त्व ६८४ सम्यक्त्व (दर्शन-सम्पन्नता).... श्रुतकेवलियों ने ज्ञान से पृथक् सम्यक्त्व का प्रतिपादन अमुक्त का निर्वाण नहीं होता। किया है। इस भिन्नता के तीन हेत हैं-आवरणभेद, __ण सेणिओ आसि तया बहुस्सुओ, विषयभेद और कारणभेद । न यावि पन्नत्तिधरो न वायगो। सम्यक्त्व ज्ञान का कारण है। ज्ञान सम्यक्त्व का सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सइ, कार्य है। कारण और कार्य में अभेद मानकर तत्त्वार्थभाष्य समिक्ख पन्नाइ वरं खु दंसणं ॥ कार ने सम्यक्त्व को मतिज्ञान का तीसरा भेद 'अपाय' भट्ठण चरित्ताओ सुट्ट्यरं सणं गहेयव्वं । बताया है। सिझंति चरणरहिया दसणरहिया न सिझंति ॥ दर्शनमोहनीयकर्मक्षयोपशमादिना या तत्त्वश्रद्धाना (आवनि ११५८,११५९) त्मिका तत्त्वरुचिरुपजायते, तया तत्त्वश्रद्धानात्मकं जीवादि श्रेणिक न बहुश्रुत था, न प्रज्ञप्तिधर था और न ही तत्त्वरोचकं विशिष्ट श्रुतं जन्यते, ततस्तत् श्रुताज्ञान वाचक था, फिर भी वह आगामी काल में तीर्थकर होगा। व्यपदेशं परिहृत्य श्रुतज्ञानसज्ञां समासादयति । (विभामव १५२४५) प्रज्ञा से समीक्षा करो कि दर्शन ही प्रधान दर्शनमोह कर्म के क्षयोपशम आदि से तत्त्वरुचि चारित्र से भ्रष्ट होने पर भी दर्शन (सम्यक्त्व) को उत्पन्न होती है। उस तत्त्व-रुचि से जब तत्त्वश्रद्धात्मक दृढ़ रखना चाहिए क्योंकि चारित्र से रहित व्यक्ति सिद्ध श्रुत उत्पन्न होता है, तब श्रुतअज्ञान श्रुतज्ञान बन जाता हो सकता है, दर्शन से रहित सिद्ध नहीं हो सकता। (यह है। श्रुत और सम्यक्त्व में यही अंतर है। आपेक्षिक कथन है। निश्चय में तो दर्शन, ज्ञान और १६. सम्यक्त्व और चारित्र चारित्र की त्रिपदी ही मुक्ति का मार्ग है।) नत्थि चरितं सम्मत्तविहणं, सणे उ भइयव्वं । नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । सम्मत्तचरित्ताई, जुगव पुवं व सम्मत्त । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ (उ २८।२९) (उ २८।३५) सम्यक्त्व-शून्य चारित्र नहीं होता। दर्शन में चारित्र जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा की भजना है । सम्यक्त्व और चारित्र युगपत् उत्पन्न होते करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध हैं । और जहां वे युगपत् उत्पन्न नहीं होते, वहां पहले। ___ होता है। सम्यक्त्व होता है। (श्रीमज्जयाचार्य लिखते हैं -पहिला सम्यक्त्व आवै २१. सम्यक्त्व (दर्शन-सम्पन्नता) के परिणाम अनै पछै चारित्र पावै एतो प्रत्यक्ष दीसेज छै। पिण सणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ. परं न सम्यक्त्व चारित्र साथै आवै कह्यो ते किम । तेहनों विज्झायइ। अणत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे उत्तर । एक मुनि छठे गुणठाणे हुँतो। तिणन किणही सम्म भावेमाणे विहरह। (उ २९६१) बोलनी शंका पडी। तिवारे समकित चारित्र दोनूं दर्शन-सम्पन्नता (सम्यक दर्शन की सम्प्राप्ति) से ही गया । पहिलं गुण ठाणे आयो। पर्छ अन्तर्मुहूर्त में जीव संसार-पर्यटन के हेतु-भूत मिथ्यात्व का उच्छेद शंका मिट्यां पाछो छठे गुणठाणे आयां सम्यक्त्व चारित्र करता है, क्षायिक सम्यक् दर्शन को प्राप्त करता है। उससे सहित थयो। इम सम्यक्त्व चारित्र साथै आवै । एहवं आगे उसकी प्रकाश-शिखा बुझती नहीं। वह अनुत्तर ज्ञान न्याय संभव - उत्तराध्ययन की जोड़ २८।२९ का वार्तिक) और दर्शन से अपने आपको संयोजित करता हुआ, उन्हें २०. सम्यक्त्व (दर्शन) की महत्ता सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विहरण करता नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा। . है। अगणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं । मिच्छत्तपरिणतो जीवो कम्मघणमहाजालं अणुसमयं (उ० २८।३०) बंधति, तविवागेण जातिजरामरणादिवसणसतससारं अदर्शनी के ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र- परियट्टइ । पडिक्कंतस्स पुण गुणा सुदेवत्तसुमाणुसत्तादि गुण नहीं होते । अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। मोक्खपज्जवसाणत्ति । तत्पुनः सम्यक्त्वं यथा कुड्यादिभूमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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