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________________ उत्सर्ग समिति हाथ, पैर आदि टूटने से आत्मविराधना होती है । त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होने से संयम की विराधना होती है अतः मुनि ऐसे मार्ग का वर्जन करे । ईर्यासमित: अहिंसक उचालियम पाए ईरियासमियस्स संकमट्टाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज || (ओनि ७४८) समित मुनि संक्रमण के लिए अपने पैर को ऊपर उठाता है, उस समय यदि कोई कुलिंगी - द्वीन्द्रिय आदि प्राणी पैर के नीचे आकर मर जाए तो उस निमित्त से उसके सूक्ष्म कर्मबन्ध भी नहीं होता, क्योंकि उसके मन, वाणी औरकाया का प्रयोग सर्वात्मना निरवद्य है - यह सिद्धान्त में प्रतिपादित है । भाषा समिति, एषणा समिति (द्र सम्बद्ध नाम ) ४. आदान-निक्षेप समिति ओहोवहोवग्गहियं, भंडगं दुविहं मुणी । गिण्हंतो निक्खिवंतो य, पउंजेज्ज इमं विहिं चक्खुसा पडिले हित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई । आइए निक्खिवेज्जा वा, दुहओ वि समिए सया ॥ ( उ २४ । १३,१४) सदा सम्यक् प्रवृत्त यति ओघ उपधि और औपग्रहिक उपधि- दोनों प्रकार के उपकरणों का चक्षु से प्रतिलेखन ( निरीक्षण ) कर तथा रजोहरण आदि से प्रमार्जन कर संयमपूर्वक उनका आदान और निक्षेपण करे — उन्हें ले और रखे यह आदाननिक्षेप समिति है । उपधि का विवरण ( द्र. उपधि) उपधि की प्रतिलेखना विधि ( द्र. प्रतिलेखना) ५. उत्सगं समिति उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजल्लियं । आहारं उवह देहं अन्नं वावि तहाविहं || ( उ २४ । १५) मुनि उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक का मैल, मैल, आहार, उपधि, शरीर या उसी प्रकार की दूसरी कोई उत्सर्ग करने योग्य वस्तु का उपयुक्त स्थण्डिल में उत्सर्ग करे । Jain Education International समिति आगम्म पडिक्कतो अणुपेहे जाव चोद्दसवि पुव्वे । परिहाणि जा तिगाहा निद्दपमाओ जढो एवं ॥ (ओनि २०८ ) कायिकी का परिष्ठापन करके ईर्ष्यापथिकी प्रतिक्रमण करे, फिर यदि वह आनप्राणलब्धि से संपन्न हो तो चतुर्दश पूर्वो का अनुस्मरण करे। यदि ऐसा करने समर्थ न हो तो कम से कम तीन गाथाओं की अनुप्रेक्षा अवश्य करे । इससे निद्रा - प्रमाद का परिहार होता है । उत्सर्ग योग्य स्थण्डिल भूमि ६७१ अणावामसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए । अणावायमसंलोए परस्सऽणुवघाइए । समे अज्भुसिरे यावि अचिरकालकयंमि य । वित्थिष्णे दूरमोगाढे नासन्ने बिलवज्जिए । तसपाणबीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे ॥ (उ२४।१६-१८) स्थण्डिल चार प्रकार के होते हैं१. अनापात - असंलोक - जहां लोगों का न हो, वे दूर से भी न दीखते हों । २. अनापात -संलोक-जहां लोगों का आवागमन न हो, किन्तु वे दूर से दीखते हों । ३. आपात असंलोक - जहां लोगों का आवागमन हो किन्तु वे दूर से न दीखते हों । ४. आपात -संलोक - जहां लोगों का आवागमन भी हो और वे दूर से दीखते भी हों । जो स्थण्डिल अनापात असंलोक, पर के लिए अनुपघातकारी, सम, अशुषिर ( पोल या दरार रहित), कुछ समय पहले ही निर्जीव बना हुआ कम से कम एक हाथ विस्तृत तथा नीचे से चार अंगुल की निर्जीव परत वाला, गांव आदि से दूर, बिलरहित और त्रस प्राणी तथा बीजों से रहित हो उसमें उच्चार आदि का उत्सगं करे । आवागमन अचिरकालकृते च दाहादिना स्वल्पकाल निर्वर्तिते, चिरकालकृते हि पुनः संमूर्च्छन्त्येव पृथ्वीकायादयः । ( उशावृप ५१८ ) स्वल्पकाल के पूर्व दग्ध स्थान सर्वथा अचित्त ( जीव-रहित ) होते हैं । जो चिरकाल के दग्ध स्थान हैं, वहां पृथ्वीका आदि के जीव पुनः उत्पन्न हो जाते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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