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________________ संलेखना के अतिचार तओ संवच्छरद्धं तु विगिट्ठे तु परिमियं चेव आयामं, तंमि संवच्छरे कोडीस हिमायाम, कट्टु संवच्छरे मुणी | मासद्ध मासिएणं तु, आहारेण तवं चरे ॥ ( उ ३६।२५१-२५५) तवं चरे । करे ॥ ( प्रवचनसारोद्धार के अनुसार प्रथम चार वर्षों में विचित्र तप किया जाता है और उसके पारण में यथेष्ट भोजन किया जाता है। दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप किया जाता है, किन्तु पारण में विकृति का त्याग किया जाता है। ६६१ इसे समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा, तं जहा - इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे जीवियासंसओगे मरणासंसप्पओगे कामभोगासंसप्पओगे । ( आव परि पृ २३ ) संलेखना उत्कृष्टत: बारह वर्ष, मध्यमतः एक वर्ष तथा जघन्यतः छह मास की होती है। संलेखना करने वाला मुनि पहले चार वर्षों में विकृतियों (रसों) का परित्याग करे । दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप ( उपवास, बेला, तेला आदि) का आचरण करे। फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप ( एक दिन उपवास तथा एक दिन भोजन ) करे । भोजन के दिन आचाम्ल करे । ग्यारहवें वर्ष के पहले छह महीनों तक कोई भी विकृष्ट तप (तेला, चोला आदि) न करे । ग्यारहवें वर्ष के पिछले छह महीनों में विकृष्ट तप करे । इस पूरे वर्ष में परिमित (पारणा के दिन) आचाम्ल करे । बारहवें वर्ष में मुनि कोटि सहित संसार भावना-संसार की नाना परिणतियों का ( निरन्तर ) आचाम्ल करे । फिर पक्ष चिन्तन | ( द्र. अनुप्रेक्षा ) आहारत्याग ( अनशन) करे । संस्थान आकृति, शरीर के अवयवों अथवा परमाणु - पुद्गलों की रचना । संवर भावना - आश्रवों का निरोध करने वाले अनुप्रेक्षा । (द्र. अनुप्रेक्षा ) या मास का अनुसार बारहवें निशीथचूर्णि (भाग ३ पृ २९४) के वर्ष में क्रमश: आहार की इस प्रकार कमी की जाती है, जिससे आहार और आयु एक साथ ही समाप्त हों। उस वर्ष के अंतिम चार महीनों में मुंह में तेल भरकर रखा जाता है। उसका प्रयोजन है— मुखयंत्र नमस्कारमंत्र आदि का उच्चारण करने में असमर्थं न हो । ४. संलेखना के अतिचार आचाम्ल, छह प्रकार के बाह्य तप, भिक्षुप्रतिमाये सब शरीरसंलेखना के साधन हैं। संलेखना के लिए वही तप स्वीकार करना चाहिए, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और शरीरधातु के अनुकूल हो । देखें - उत्तरज्झयणाणि ३०।१३ का टिप्पण) Jain Education International अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणाभूषणा राहणया । अंतिम समय में की जाने वाली तपस्या और अनशन की आराधना का नाम है-मारणांतिक संलेखना व्रत । इसके पांच अतिचार हैं संस्थान १. इहलोक संबन्धी सुखों की अभिलाषा । २. परलोक संबन्धी सुखों की अभिलाषा । ३. जीने की आकांक्षा । ४. मरने की आकांक्षा । ५. काम भोग की आकांक्षा । १. शरीर के संस्थान * संस्थान : नाम कर्म की प्रकृति * संस्थान प्रकृति का क्षय * यौगलिकों के संस्थान * अवधिज्ञान, इन्द्रिय और सिद्धों का संस्थान हंडे । ( ब्र. कर्म) ( ब्र. गुणस्थान) (द्र. मनुष्य) * संस्थान और सामायिक प्राप्ति २. वृषभ संस्थान वाली वसति ३. पौद्गलिक संस्थान ४. संस्थानों के प्रकार ५. संस्थानसंरचना: परमाणुओं का इतरेतर संयोग ( ब्र. संबद्ध नाम ) (द्र. सामायिक) १. शरीर के संस्थान ... समचउरंसे नग्गोहपरिमंडले साई खुडजे वामण ( अनु २३५) For Private & Personal Use Only समाः - शास्त्रोक्तलक्षणाविसंवादिन्यश्चतुर्दिग्वर्तिनः अवयवरूपाश्चतस्रोऽस्रयो यत्र तत् समचतुरस्रं संस्थानं, www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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