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________________ प्राणीमात्र में ज्ञान की सत्ता 'मुट्ठिमेत्ताहि धाराहि', उक्कुरुडेण भणियं -- 'जहा रति तहा दिवं', एवं वोत्तूणमवक्कंता | कुणालाएवि पण्णरस दिवस अणुबद्धव रिसणेणं सजणवया जलेण अक्कता तओ ते तइयवरिसे साएए णयरे दोऽवि कालं काऊ आहे सत्तमाए पुढवीए काले णरगे बावीससागरोवमट्टिइआ णेरइया संवृत्ता | कुणालाणयरीविणासकालाओ तेरसमे वरिसे महावीरस्स haaणाणसमुप्पत्ती । एवं अनिबद्धं । लोइयं अबद्धकरणं बत्तीसं अड्डियाओ बत्तीसं पच्चड्डियाओ सोलस करणाणि, लोगप्पवाए पंचद्वाणाणि तं जहा - आलीढं पच्चालीढं वइसाहं मंडलं समपायं । .... सयणकरणं छट्ठ ठाणं । ( वहावृ १३१०) जो पाठ अंग- उपांग आगम में उपलब्ध नहीं हैं, वे अबद्ध हैं, उन्हें 'आदेश' कहा जाता है । वे अर्हत्प्रवचन में पांच सौ की संख्या में हैं। जैसे ६४३ श्रुतज्ञान वर्ष में भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इस प्रकार के पांच सौ आदेश सूत्रों में निबद्ध नहीं हैं । ये लोकोत्तर आदेश हैं । लौकिक अबद्धकरण १. अर्हत् ऋषभ की माता मरुदेवी अनन्त वनस्पति से उद्वृत्त होकर सिद्ध हुई । २. स्वयम्भूरमण समुद्र के मत्स्यों और पद्मपत्रों के वलय संस्थान को छोड़कर शेष सब संस्थान होते हैं । ३. श्री विष्णु ने सातिरेक ( कुछ अधिक ) एक लाख योजन की विकुर्वणा की । ४. कुणाला नगरी में कुरुट और उत्कुरुट- ये दो उपध्याय रहते थे । इन दोनों की वसति नगरी के जलनिर्गमनमार्ग पर थी । वर्षावास का समय । इन्होंने वर्षा न होने के लिए देवता की अनुकम्पा प्राप्त की । नागरिकों ने यह जानकर उनको वहां से निकाल दिया। तब रुष्ट होकर कुरुट ने कहा देव ! कुणाला में बरसो । उत्कुरुट ने कहा-पन्द्रह दिन तक निरंतर बरसो । कुरुट ने पुन: कहामुसलाधार वर्षा करो। उत्कुरुट ने इतना और जोड़ दिया - दिन-रात एक समान बरसो । ऐसा कहकर दोनों ने वहां से प्रस्थान कर दिया। तीसरे वर्ष साकेत नगरी में वे दोनों मरकर सातवीं पृथ्वीकाल नरक में बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक बने । उधर निरन्तर पन्द्रह दिन-रात तक मुसलाधार वर्षा के कारण कुणाला नगरी जलाप्लावित होकर विनष्ट हो गई | कुणाला के विनाश के बारह वर्ष पश्चात् तेरहवें Jain Education International बत्तीस after ( मल्लों की क्रियाविशेष ), बत्तीस प्रत्यड्डिका, सोलह करण तथा लोकप्रवाद में वर्णित पांच स्थान - आलीढ, प्रत्यालीढ, वैशाख, मण्डल और समपाद । छठा स्थान शयनकरण - ये कथन लौकिक शास्त्रों में निबद्ध नहीं हैं । २१. श्रुतज्ञान की पश्यत्ता उवउत्तो सुयनाणी सव्वं दव्वाई जाणइ जहत्थं । पासइय केइ सो पुण तमचक्खद्दंसणेणं ति ॥ मइभेयमचक्खुसणं च वज्जितु पासणा भणिया । पण्णवणाए उ फुडा तेण सुए पासणा जुत्ता ॥ ( विभा ५५३,५५५ ) द्रव्यों को ययार्थ कि वह अचक्षुदर्शन ज्ञान में उपयुक्त श्रुतज्ञानी सब जानता है । एक मान्यता यह भी है से देखता है । प्रज्ञापना (३०१२ ) में मति ज्ञान, मति अज्ञान और अचक्षु दर्शन को छोड़कर शेष ज्ञानभेदों की पश्यत्ता स्पष्ट प्रतिपादित है । इसलिए श्रुतज्ञान की पश्यत्ता युक्तियुक्त है । जे जाणति पासति त्ति एवं पढति ते इमं कारणं पडुच्च, जम्हा सुयणाणी दीवसमुद्दाणं देवकुरूत्तरकुरादीणं च भवणाणं संठाणादीणि जाणतो पासंतो इव आलिहिऊणं दरिसेति । अतो जाणति पासतित्ति एस आलावगो न विरुज्झइ । ( आवचू १ पृ ३५, ३६) श्रुतज्ञानी अदृष्ट द्वीपसमुद्रों और देवकुरु - उत्तरकुरु के भवनों की आकृतियों (संस्थानों) का इस रूप में आलेखन करता है कि मानों उन्हें साक्षात् देखा हो । अतः 'श्रुतज्ञानी जानता है, देखता है' यह आलापक विपरीत नहीं है। २२. प्राणीमात्र में ज्ञान की सत्ता सव्वजीवाणं पिय णं अक्खरस्स अनंतभागो निच्चुग्घाडिओ, जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा । सुट्ठवि मेहसमुदए, होइ पभा चंदसूराणं । (नन्दी ७१) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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