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________________ श्रुतज्ञान अनक्षर श्रुत असंबद्ध हैं और उनके नास्तित्व से संबद्ध हैं। इसी प्रकार १४. अक्षर का पर्यवपरिमाण अकार के जो परपर्याय हैं, वे उसके नास्तित्व से संबद्ध हैं सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणियं और अस्तित्व से असंबद्ध हैं । ये अन्य अक्षरों के अस्तित्व प पज्जवग्गखर निप्फज्जइ। नि । (नन्दी ७०) से संबद्ध और नास्तित्व से असंबद्ध हैं। समस्त आकाशप्रदेशों को समस्त आकाशप्रदेशों से अनन्त बार गुणन करने पर जितना परिमाण होता है, १३. एक का ज्ञान, सर्व का ज्ञान उतने ही परिमाण में विद्यमान हैं-- अक्षर के पर्यव । एगं जाणं सव्वं जाणइ सव्वं च जाणमेगं ति । (प्रस्तुत सूत्र में अक्षर अथवा केवलज्ञान का प्रमाण इय सव्वमजाणतो नागारं सव्वहा मुणइ ।। ज्ञेय के आधार पर समझाया गया है। आकाश के एक एक किमपि वस्तु सर्वेः स्वपरपर्यायैर्युक्तं जानन्नव- प्रदेश में अगुरुलघु पर्याय अनन्त होते हैं। लोकाकाश बुध्यमानः सर्वं लोकाऽलोकगतं वस्तु सर्वैः स्वपर्यायैर्युक्तं और अलोकाकाश दोनों को मिलाकर आकाश के प्रदेश जानाति, सर्ववस्तुपरिज्ञाननान्तरीयकत्वादेकवस्तुज्ञानस्य । अनंत हैं। सब आकाशप्रदेशों को सब पर्यायों से अनंत यश्च सर्व सर्वपर्यायोपेतं वस्तु जानाति स एकमपि बार गुणित करने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है, वह पर्याय सर्वपर्यायोपेतं जानाति, एकपरिज्ञानाऽविनाभावित्वात् का प्रमाण होता है । अक्षर अथवा केवलज्ञान का परिमाण सर्वपरिज्ञानस्य । (विभा ४८४ मवृ पृ २२५) इतना ही होता है । देखें -- नन्दीच पृ ५२) जो समग्र स्व और पर पर्यायों से युक्त किसी एक भी अविसेसियं पि सुत्ते अक्खरपज्जायमाणमाइटठं । वस्तु को जानता है, वह सारे लोक और अलोक में सुय-केवलक्खराणं एवं दोण्हं पि न विरुद्धं ।। विद्यमान स्व-पर-पर्यायों से युक्त सर्व वस्तु को जानता (विभा ४९६) है। क्योंकि एक वस्तु का परिज्ञान सर्व वस्तू के परिज्ञान अक्षर का पर्यव-परिमाण सामान्य रूप से निरूपित का अविनाभावी है। है। यहां अक्षर का संबंध श्रत-अक्षर और केवल-अक्षर जो समस्त पर्यायों से युक्त सर्व वस्तु को जानता है, दोनों के साथ जोड़ा जा सकता है। श्रुत-अक्षर के जितने वह सर्व पर्यायोपेत एक वस्तु को भी जानता है। क्योंकि स्व-पर पर्याय हैं, उतने ही पर्याय केवल-अक्षर के हैं। सर्व वस्तु का परिज्ञान एक वस्तु के परिज्ञान का अविना- १५. अ १५. अनक्षर श्रुत भावी है। जो सर्व वस्तु को नहीं जानता, वह एक अकार अणक्ख रसुयं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहाअक्षर को भी पूर्ण रूप से नहीं जानता । ऊससियं नीससियं, निच्छुढं खासियं च छीयं च । पण्णवणिज्जा भावा वण्णाण सपज्जया तओ थोवा । सेसा परपज्जाया तोऽणंतगूणा निरभिलप्पा ।। निस्सिघियमणुसार, अणक्खरं छेलियाईयं ।। (विभा ४८८) (नन्दी ६०) अनक्षर श्रत के अनेक भेद हैं। जैसे- उच्छवासअभिलाप्य वस्तु का कथन वर्गों के द्वारा होता है। निःश्वास, थूकना, खांसना, छींकना, नाक की आवाज, अतः प्रज्ञापनीय-अभिलाप्य भाव अकार आदि वर्गों के स्वपर्याय हैं। ये परपर्याय के अनन्तवें भाग जितने हैं। शेष अनुस्वार, सेंटित-सीटी बजाना आदि। अनभिलाप्य भाव अक्षर के परपर्याय हैं। ये स्वपर्याय से ऊससियाई दव्वसुयमेत्तमहवा सुओवउत्तस्स । अनन्तगुण अधिक हैं। सव्वो च्चिय वावारो सूयमिह तो किन चेद्रा वि।। पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । रूढी य तं सुयं सुव्वइ त्ति चेट्टा न सुम्वइ कयाइ । पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सूयनिबद्धो ।। अहिगमया वण्णा इव जमणुस्सारादओ तेणं ।। (विभा १४१) (विभा ५०२,५०३) अनभिलाप्य (अप्रज्ञापनीय) भावों का अनन्तवां भाग उच्छ्वास-नि:श्वास आदि से जो ज्ञान होता है, वह अभिलाप्य (प्रज्ञापनीय) भाव है। प्रज्ञापनीय भावों का अनक्षर श्रुत है । यह श्रुतज्ञान का कारण है, अतः द्रव्यअनन्तवां भाग श्रुत निबद्ध है। श्रत है। विशिष्ट अभिप्रायपूर्वक उच्छवास आदि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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