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________________ श्रुतज्ञान संक्षेप में श्रुतज्ञान चार प्रकार का है द्रव्यतः " द्रव्य की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त (ज्ञेय के प्रति दत्तचित्त ) होने पर सब द्रव्यों को जानता देखता है | क्षेत्रत:- क्षेत्र की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त होने पर सब क्षेत्रों को जानता देखता है । कालतः - काल की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त होने पर सर्व काल को जानता देखता है । -भाव की दृष्टि से सब भावों को जानता देखता है । भावतः ६. श्रुत के एकार्थक सुय सुत्त गंथ सिद्धंत, सासणे आण वयण उवएसे । पण्णवण आगमे य, एगट्ठा ६३४ श्रुतज्ञानी उपयुक्त होने पर Jain Education International पज्जवा सुते ॥ ( अनु ५१ ) श्रुत, सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन और आगम-ये श्रुत के एकार्थक हैं । ७. श्रुतज्ञान के प्रकार तं समासओ दुविहं पण्णत्तं तं जहा - अंगपविट्ठ अंगबाहिरं च । ( नन्दी ७३) श्रुतज्ञान संक्षेपतः दो प्रकार का है अंगप्रविष्ट ओर अंगबाह्य | तं च सुतावरणखयोवसमत्तणतो एगविहं पितं अक्खरादिभावे पडुच्च जाव अंगबाहिरं ति चोद्दसविधं भण्णति । ( नन्दीचू पृ ४४) श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा श्रुतज्ञान एक प्रकार का ही है। अक्षर आदि भावों की अपेक्षा से वह चौदह प्रकार का है। सुयनाणपरोक्खं चोदसविहं पण्णत्तं तं जहा - १. अक्खरसुयं २. अणक्खरसुयं ३. सण्णिसुयं ४ असणसुयं ५. सम्मसुयं ६. मिच्छसुयं ७. साइयं ८. अणाइयं ९. सपज्जवसियं १०. अपज्जवसियं ११. गमियं १२. अगमियं १३. अंगपविट्ठ १४. अगंगपविट्ठं । ( नन्दी ५५ ) श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान है । उसके चौदह प्रकार हैं१. अक्षरश्रुत २. अनक्षरश्रुत ३. संज्ञीश्रुत ४. असंज्ञीश्रुत ५. सम्यकश्रुत ६. मिध्याश्रुत ७. सादिश्रुत ८. अनादिश्रुत ९. सपर्यवसितश्रुत १०. अपर्यवसितश्रुत ११. गमिकश्रुत ( श्रुतज्ञान के ये चौदह भेद छह हेतु सापेक्ष हैं १. अक्षरश्रुत-अनक्षरश्रुत— अक्षर तथा संकेत के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से । २. संज्ञीश्रुत - असंज्ञीश्रुत मानसिक विकास और अविकसित मन के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से । अक्षरश्रुत की परिभाषा १२. अगमिकश्रुत १३. अंगप्रविष्टश्रुत १४. अनंगप्रविष्टश्रुत - ३. सम्यक् श्रुत - मिध्याश्रुत - प्रवचनकार और ज्ञाता के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से । ४. सादि-अनादिश्रुत, सपर्यवसित- अपर्यवसितश्रुतकालावधि के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से । ५. गमिक - अगमिकश्रुत- रचनाशैली की अपेक्षा से । ६. अंग - अनंगश्रुत -- ग्रन्थकार की अपेक्षा से । श्रुतज्ञान के चौदह भेदों की अवधारणा आवश्यक निर्युक्ति और नंदीसूत्र में उपलब्ध होती है । देवेन्द्रसूरि कृत कर्मविपाक में श्रुतज्ञान के चौदह और बीस दोनों प्रकार उपलब्ध हैं । षट्खण्डागम में श्रुतज्ञान के बीस प्रकार बतलाए गए हैं। देखें-नन्दी सूत्र ५५ का टिप्पण) पत्ते मक्खराई, अक्खरसंजोग जत्तिया लोए । एवइया पयडीओ, सुयनाणे हृति णायव्वा ॥ ( आवनि १७ ) लोक में जितने अक्षर हैं और उनके जितने विविध संयोग हैं, उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं । ८. अक्षरश्रुत की परिभाषा न तव्विरहे । न क्खरइ अणुवओगे वि अक्बरं सो य चेयणाभावो । अविसुद्ध नयाण मयं सुद्धनयाण क्खरं चैव ॥ उवओगे वि य नाणं सुद्धा इच्छंति जं उपाय-भंगुरा वा जं तेसि अभिलप्पा वि य अत्था सव्वे दव्वट्टियाए जं निच्चा । पज्जायेणानिच्चा तेण खरा अक्खरा चेव || (विभा ४५५-४५७) सव्वपज्जाया ॥ For Private & Personal Use Only अनुपयोग काल में भी जिसका क्षरण नहीं होता, वह अक्षर है और वह चेतना का ज्ञान परिणाम है । नैगम आदि अविशुद्ध नयों की दृष्टि में ज्ञान अक्षर है- उसका www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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