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________________ शरीर ६०३ शरीर-प्रत्याख्यान का परिणाम शरीरप्रयोगकरण ___ इत्तो उत्तरकरणं सरीरकरणं पओगनिप्फन्न ।.... आतङ्कन-आशुधातिना शूलविसूचिकादिरोगेण । तस्य प्रयोगः-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजजीववीर्यजनितो (उशावृ प २४६) व्यापारः तेन निष्पन्नं शरीरकरणप्रयोगनिष्पन्नम्, अत ___ आङिति सर्वात्मप्रदेशाभिव्याप्त्या तङ्कयन्ति-कृच्छएव शरीरनिष्पत्त्यपेक्षयाऽस्योत्तरत्त्वम् । जीवितमात्मानं कुर्वन्तीत्यातङ्काः–सद्योघातिनो रोग(उनि १९३ शावृ प २०१) विशेषाः ।। (उशावृ प ३३८) वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला जीव शिर:शूल, विसूचिका आदि सद्योघाती रोग आतंक का वीर्यजनित व्यापार शरीरप्रयोगकरण है। शरीर की कहलाते हैं। आतंक सर्व आत्मप्रदेशों में व्याप्त हो कष्ट निष्पत्ति जीवमुलप्रयोगकरण है और शरीर की प्रवत्ति पहुंचाता है। यह प्राणी को अल्पजीवी बनाता है। उत्तरप्रयोगकरण है । इसके चार भेद हैं -- मुत्तनिरोहे चक्खू, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ । १. संघात-तंतुओं के संघात से पट का निर्माण । उड्ढ निरोहे को8, गेलन्नं वा भवे तिसुवि ।। २. परिशाट -- अतिरिक्त भाग के परिशाट से शंख (ओनि १९७) ___का निर्माण करना आदि । शारीरिक आवेगों को रोकने से व्याधियां होती हैं। ३. मिश्र ----कीलिका आदि का संघात तथा मूत्रनिरोध से दृष्टि लुप्त हो जाती है। मलनिरोध अतिरिक्त काष्ठ का परिशाट कर शकट का से मृत्यु तक हो जाती है । ऊर्ध्ववायु के निरोध से कोढ का निर्माण करना। रोग हो जाता है । तीनों के निरोध से शक्ति की क्षीणता ४. प्रतिषेध-न संघात, न परिशाट । जैसे स्थूणा होती है। को ऊपर-नीचे करना। १३. शरीर-धारण का प्रयोजन यद्यपि यह अजीव का उत्तरकरण है, किंतु जीव के बहिया उड्ढमादाय, नावकखे कयाइ वि । द्वारा किया जाता है, इस अपेक्षा से इसे जीवकरण कहा पुब्बकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ।। गया है। (उ ६.१३) १२. औदारिक शरीर और रोग बाह्य-शरीर से भिन्न ऊर्ध्व-आत्मा है। इसे सासे खासे जरे डाहे, कुच्छिसूले भगंदरे । स्वीकार कर किसी प्रकार की आकांक्षा न करे । पूर्व कर्मों अरिसा अजीरए दिट्ठी-मुहसूले अरोयए ।। के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे । अच्छिवेयण कंडू य, कन्नवाहा जलोयरे । सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। कोढे एमाइणो रोगा, पीलयंति सरीरिणं ।। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ।। (उसुव प १६३) (उ २३७३) श्वास, खांसी, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगंदर, अर्स, जीव नाविक है। संसार समुद्र है। उसको तैरने अजीर्ण, दृष्टिशूल, मुखशूल, अरुचि, अक्षिवेदना, खाज, का एकमात्र साधन है नौका । वह नौका शरीर ही है। कर्णबाधा, जलोदर, कोढ आदि रोग शरीर को पीडित करते हैं। १४. शरीर-प्रत्याख्यान का परिणाम अरतिः बातादिजनितश्चित्तोद्वेगः। विध्यतीव सरीरपच्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ । शरीरं सूचिभिरिति विसूचिका-अजीर्णविशेषः । सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही (उशाव प ३३८) भवइ । (उ २९।३९) वायु आदि से उत्पन्न चित्त का उद्वेग अरति शरीर के प्रत्याख्यान (देहमुक्ति) से जीव मुक्त कहलाता है। आत्माओं के अतिशय गुणों को प्राप्त करता है और लोक अजीर्णविशेष को विसूचिका कहते हैं। इसमें रोगी के शिखर पर पहुंचकर परम सुखी हो जाता है । को ऐसा महसूस होता है कि शरीर सूइयों से बींधा जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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