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________________ शरीर ६०० शरीरों की क्रम-व्यवस्था साथ जाने वाला है। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं जहा वाउकाइयाणं । ..."पच्चक्खं चिय जीवोवनिबंधणं जह सरीरं। मणस्साणं "पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहाचिइ कम्मयमेवं भवंतरे जीवसंजुत्तं ।। ओरालिए। (विभा १६३६) वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं जहा नेरइयह प्रत्यक्ष है कि जीव के साथ स्थूल शरीर संबद्ध याणं । . (अनु ४४४-४५६) है, उसी प्रकार भवान्तर में भी जीव के साथ कर्मशरीर पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, संबद्ध रहता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-इन जीवों के तीन(मलधारीयवृत्ति में 'कर्म ही कार्मण शरीर है' ---- तीन शरीर हैं-औदारिक, तेजस और कार्मण । यह वैकल्पिक अर्थ भी प्राप्त है। सिद्धसेनगणी ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् २।३७ की भाष्यानुसारिणी में इस वायुकाय और पंचेन्द्रियतियंचों के चार-चार शरीर अर्थ का मतांतर के रूप में उल्लेख किया है तथा कार्मण हैं-औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कामण। शरीर कर्म से निष्पन्न है और कर्म ही कार्मण शरीर मनुष्यों के पांच शरीर हैं - औदारिक, वैक्रिय, है-इन दोनों पक्षों को अनेकांत दृष्टि से सगत बतलाया आहारक, तंजस और कार्मण।। नैरयिक जीवों तथा सभी देवों के तीन-तीन शरीर कर्म कार्मण शरीर में होते हैं पर कर्म भिन्न है, हैं-वैक्रिय, तेजस और कार्मण । कार्मण शरीर भिन्न है। कर्म की उत्पत्ति बंधन नामकर्म (औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल का और रागद्वेष के निमित्त से होती है। शरीर की उत्पत्ति असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक शरीरनाम कर्म के उदय से होती है। इसी प्रकार इनका एक हजार योजन है। वैक्रिय शरीर की जघन्य अवगाहना विपाक भी भिन्न है। ज्ञानावरण आदि कर्म का विपाक अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट अवगाहना अज्ञान आदि उत्पन्न करता है । कार्मण शरीर का विपाक सातिरेक एक लाख योजन है। आहारक शरीर जघन्यतः कार्मण शरीर को ही परिपुष्ट करता है। देशोन रत्नि और उत्कृष्टतः एक रत्निप्रमाण होता है। तत्त्वार्थधिगमसूत्रम् ६।१० की व्याख्या में सिद्धसेन औदारिक शरीर नाना संस्थान वाला है। आहारक गणी ने कार्मण शरीर को अपने योग्य द्रव्यों से निर्मित शरीर समचतुरस्र संस्थान वाला है। सब शरीरों की स्वसंस्थान वाला बतलाया है। कार्मण शरीर कर्माशय अवगाहना, संस्थान आदि के लिए देखें--पण्णवणा के रूप में उत्पन्न होता है और वह कर्म के लिए आधार पद २१) भूत बनता है।) ८. किस जीव के कितने शरीर ? ९. शरीरों को क्रम-व्यवस्था नेरइयाण "तओ सरीरा पण्णत्ता, तं जहा- परं परं प्रदेश सूक्ष्मत्वात परं परं प्रदेशबाहल्यात परं देउव्विए तेयए कम्मए। परं प्रमाणोपलब्धित्वात् प्रथित एवौदारिकादिक्रमः । असुरकुमाराणं ""तओ सरीरा पण्णत्ता, तं जहा (अनुचू पृ ६१) वेउव्विए तेयए कम्मए । स्वल्पपदगलनिष्पन्नत्वादबादरपरिणामत्वाच्च प्रथमएवं तिण्णि-तिण्णि एए चेव सरीरा जाव थणिय मौदारिकस्योपन्यासः। ततो बहुबहुतरवहुतमपुद्गलकुमाराणं भाणियब्वा। निर्वत्तत्वात सक्ष्मसूक्ष्मतरसूक्ष्मतमत्वाच्च क्रमेण शेषपुढविकाइयाणं "तओ सरीरा पण्णत्ता, तं जहा---- ओरालिए तेयए कम्मए। शरीराणामिति । (अनुमवृ प १८१) एवं आउ-तेउ-वणस्सइकाइयाण वि एए चेव तिण्णि औदारिक शरीर स्वल्प पुद्गलों से निष्पन्न तथा सरीरा भाणियव्वा । स्थूल परिणति वाला है। वाउकाइयाणं ''चत्तारि सरीरा पण्णत्ता, तं जहा----- वैक्रिय आदि शेष चार शरीर क्रमशः बहु, बहुतर, ओरालिए वे उब्विए तेयए कम्मए । बहतम पुदगलों से निष्पन्न होते हैं। इनकी परिणति बेइंदिय-तेइंदिय-चाउरिदियाणं जहा पूढविकाइयाणं । क्रमशः सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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