SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 640
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्युत्सर्ग ५९५ शकुन व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं वे रोद्रध्यान में चले गए। उधर राजा श्रेणिक भग१. द्रव्यव्युत्सर्ग---- गण, उपधि, शरीर अन्न-पान आदि वान् को वन्दना करने जा रहा था। मार्ग में मुनि का व्युत्सर्ग अथवा आर्तध्यान आदि करने वाले प्रसन्नचन्द्र को देखा, वन्दना की। तत्पश्चात् वह भगवान् का कायोत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग में अनुपयुक्त । महावीर के समवसरण में पहुंचा। वहां उसने भगवान् २. भावव्युत्सर्ग-मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति का से पूछा--भंते ! मुनि प्रसन्नचन्द्र ध्यान में स्थित हैं। व्युत्सर्ग अथवा संसार, कषाय, कर्म का व्युत्सर्ग अभी वे मृत्यु को प्राप्त हो जाएं तो कहां उत्पन्न होंगे ? अथवा धर्मध्यान, शुक्लध्यान करने वाले का भगवान ने कहा....सातवीं नरक में । इसी बीच मानसिक कायोत्सर्ग । वितोसग्गो-परिच्चागो। सो बाहिर-ऽब्भंतरोवहिस्स संग्राम में मुनि के सारे शस्त्र नष्ट हो गए। तब शिरस्त्राण जिणथेरकप्पियाणं चल-अचेला विहा बारसावसाण द्वारा मारता हूं-यह सोच अपना हाथ सिर पर रखा। चउद्दसोवग्गहे अणेगविहगण-भत्त-सरीर-वायामाणसाणं लुचित सिर को देख वे संवेग को प्राप्त हो गए। विशुद्ध अभंतरस्स मिच्छादरिसणाविरतिपमायकसायाणं वितो परिणामों से आत्मा की निन्दा कर पुनः शुक्लध्यान में सम्गो। अवस्थित हो गए। उधर श्रेणिक ने पुनः पूछा----- (दअचू पृ १९) भगवन ! प्रसन्नचन्द्र राजर्षि इस समय मृत्यु को प्राप्त व्युत्सर्ग का अर्थ है - परित्याग । उसके दो प्रकार हों तो कहां उत्पन्न होंगे? भगवान् ने कहा- अनुत्तर हैं-१. बाह्य उपधि का त्याग २. आभ्यन्तर उपधि का विमान में। इसी बीच श्रेणिक ने देवदुन्दुभि का स्वर त्याग। बाह्य उपधि-जिनकल्पी के बारह उपकरण, स्थविर सुना । भगवान् ने कहा- उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया है। देवता उनकी महिमा कर रहे हैं। यह प्रसन्नचन्द्र कल्पी के चौदह उपकरण तथा गण, आहार, शरीर, राजर्षि के द्रव्यध्यत्सर्ग और भावव्यत्सर्ग का उदाहरण वचन और मन की प्रवृत्ति का त्याग । आभ्यन्तर उपधि --मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद (आवच् १ पृ ४५५ हावृ १ पृ ३२५) और कषाय का त्याग। व्रत- प्रत्याख्यान। . (द्र. श्रावक) व्युत्सर्ग का उदाहरण : प्रसन्नचन्द्र राजर्षि शकुन-- पशु, पक्षी, व्यक्ति, वस्तु आदि से मिलने दव्वविउस्सग्गे खलु पसन्नचंदो हवे उदाहरण । वाली शुभ-अशुभ की पूर्व-सूचना । पडिआगयसंवेगो भावंमि वि होइ सो चेव ।। जंबू अ चासमऊरे भारहाए तहेव नउले अ। (आवनि १०५१) दसणमेव पसत्थं पयाहिणे सव्वसंपत्ती ।। क्षितिप्रतिष्ठित नगर में महाराज प्रसन्नचन्द्र भगवान् नंदी तूरं पुण्णस्स दंसणं संखपडहसद्दो य । महावीर के प्रवचन को सुन विरक्त हो गए। दीक्षा भिंगारछत्तचामर धयप्पडागा पसत्थाई। स्वीकार की। जिनकल्प स्वीकार करने की इच्छा से समणं संजयं दंतं सुमणं मोयगा दहिं । सत्त्व भावना से अपने आपको भावित कर रहे थे। एक मीणं घंटं पडागं च सिद्धमत्थं विआगरे ।। दिन राजगृह नगर के बाहर श्मशान में प्रतिमा में स्थित (ओभा ८४-८६) थे । भगवान् महावीर वहां पधारे। सारे लोग वन्दना प्रस्थान वेला में सियार, पपीहा, मयूर, भारद्वाज को जा रहे थे। दो वणिक भी वहां से गुजरे । प्रसन्नचन्द्र को ध्यानस्थ देखकर एक ने कहा-ये हमारे (भरत पक्षी), नकुल का दिखना शुभ है। सियार आदि दाहिनी ओर प्राप्त होने से अत्यधिक प्रशस्त हैं। राजा हैं। राजलक्ष्मी को छोडकर तप:श्री को स्वीकार किया है। ये धन्य हैं। तब दूसरे ने कहा- क्या धन्य नंदी वाद्य, तूर्य, पूर्ण कलश, शंख और पटह का है ? अपने नाबालिग पुत्र को राज्य सौंप कर स्वयं शब्द, झारी, छत्र, चामर, ध्वज-पताका आदि का योग संन्यासी बन गए । सारी जनता दुःखी है । यह सुनते ही प्रशस्त है । मुनि कुपित हो गए । मानसिक संग्राम प्रारम्भ हो गया। लिंगमात्रधारी तथा संयत और दान्त श्रमण, पुष्प, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy