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________________ वैयावृत्त्य ५९० वैयावृत्त्य के उदाहरण उदाहरण आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे । कारण अथवा मृत्यु के पश्चात् चारित्र नष्ट हो जाता आसे वणं जहाथामं, वेयावच्चं तमाहियं ।। है; पढा हुआ, सीखा हआ ज्ञान परिवर्तना के अभाव में (उ ३०॥३३) विस्मृत हो जाता है। व्यावृत: ----कुलादिकार्येषु व्यापारवांस्तद्भावो । वैयावृत्त्यम् । (उशावृ प ५९०) दसविध वैयावृत्त्याह मुनियों के वैयावृत्त्य में यथाशक्ति भरहो बाहुबलीवि य दसारकुलनंदणो य वसुदेवो । व्यापृत होना वैयावृत्त्य है। वेयावच्चाहरणा तम्हा पडितप्पह जईणं ।। (ओनि ५३५) २. वैयावृत्त्य किनकी? भरत, बाहुबलि, दशारकुलनन्दन वसुदेव-ये सेवा वेयावच्चं "इमेसि दसह-आयरियउवज्झायथेर- के उदाहरण हैं। तवस्सिगिलाणसिक्खगसाहम्मियकूलगणसंघाणं । भरत-बाहुबली (दअचू पृ १५) .."पुंडरगिणिए उ चुया तओ सुया वइरसेणस्स ।। वैयावृत्त्याह के दस भेद-आचार्य, उपाध्याय, पढमित्थ वइरणाभो बाह सुबाह य पीढमहपीढे । स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, सार्मिक, कुल, गण, संघ । तेसि पिआ तित्थअरो णिक्खंता तेऽवि तत्थेव ।। ३. वैयावृत्त्य को अर्हता पढमो चउदसपुवी सेसा इक्कारसंगविउ चउरो। अलसं घसिरं सुविरं खमगं कोहमाणमायलोहिल्लं! बीओ वेयावच्चं किइकम्मं तइअओ कासी ।। कोऊहलपडिबद्धं वेयावच्चं न कारिज्जा । भोगफलं बाहुबलं पसंसणा जिट्ट इयर अचियत्तं ।... एयद्दोसविमुक्कं कडजोगि नायसीलमायारं । (आवनि १७५-१७८) गुरुभत्तिसंविणीयं वेयावच्चं तु कारेज्जा ।। जम्बूद्वीप में पुंडरीकिणी नगरी । वज्रसेन राजा । धारिणी रानी । उसके वज्रनाभ, बाहु, सुबाहु, पीठ और (ओभा १३३,१३४) जो व्यक्ति आलसी, बहुभोजी, ऊंघने वाला, तपस्वी, महापीठ-ये पांच पुत्र थे । वज्रसेन प्रवजित होकर क्रोधी, अहंकारी, मायावी, लोभी, कुतूहल प्रिय और सूत्र तीर्थंकर बने । वज्रनाभ चक्रवर्ती बना, शेष चार मांडलिक अर्थ में प्रतिबद्ध हो, उसे सेवाकार्य में नियोजित नहीं। राजा हुए। एक दिन नलिनीगूल्म उद्यान में वज्रसेन का करना चाहिये। पदार्पण हुआ। ये पांचों भाई पिता के पास प्रवजित हो जो इन दोषों से मुक्त है, कृतयोगी-गीतार्थ है, गए। वज्रनाभ ने चतुर्दश पूर्वो का अध्ययन किया, शेष भाइयों ने एकादश अंगों को पढ़ा । बाहु सबकी वैयावृत्य शील और आचार को जानने वाला है, गुरुभक्त है, बाह्य उपचार को जानता है, वह वैयावत्त्य करने का करता । सुबाहु भगवान् का कृतिकर्म करता। एक दिन अधिकारी है। वज्रनाभ ने उन दोनों का गुणोत्कीर्तन किया-तुम लोगों ने साधुओं की वैयावृत्त्य करके अपने जीवन को सफल ४. वैयावृत्त्य अप्रतिपाती बना लिया है। उन दोनों की प्रशंसा सुनकर पीठ और वेयावच्चं निययं करेह उत्तमगुणे धरिताणं । महापीठ को अप्रीति उत्पन्न हुई। उन्होंने कहा-हम सव्वं किल पडिवाई वेयावच्चं अपडिवाई ।। इतना स्वाध्याय करते हैं, लेकिन हमारी प्रशंसा नहीं पडिभग्गस्स मयस्स व नासइ चरणं सुयं अगुणणाए। होती । यह ठीक भी है। जो काम करता है, उसी की न ह वेयावच्चचिअं सुहोदयं नासए कम्मं ।। प्रशंसा होती है । वैयावृत्त्य संघ की अव्यवच्छित्ति और (ओनि ५३२,५३३) महान् निर्जरा का हेतु है। उत्तम गुणों से सम्पन्न साधुओं की वैयावृत्त्य अवश्य बाहु और पीठ भरत और ब्राह्मी के रूप में तथा करनी चाहिये । वैयावृत्त्य अप्रतिपाती है-इससे अजित सुबाहु और महापीठ बाहुबली और सुन्दरी के रूप में शभरूप में उदय में आने वाला कर्मफल नष्ट नहीं होता। उत्पन्न हए । (देखें-आवच १५१३३,१५३) चारित्र और ज्ञान प्रतिपाती हैं-प्रमाद या कर्मोदय के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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