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________________ लोक ५६८ मनुष्यलोक-समयक्षेत्र दुपएसाइ दुरुत्तर एगपएसा अणुत्तरा चेव । दिश्यते नारकादित्वेनास्यां संसारीति दिक । चउरो चउरो य दिसा चउराइ अणुत्तरा दुन्नि ।। (उशाव प २७६) इंदग्गेई जम्मा य नेरई वारुणी अवायव्वा । जिससे या जिसमें पृथ्वी, नारक आदि के रूप में सोमा ईसाणाविअ विमला य तमा य बोद्धव्वा॥ संसारी प्राणियों का व्यपदेश किया जाता है, वह भाव (आवमवृ प ४३८) दिशा है।। मेरु के मध्य में अष्टप्रदेशी रुचक है। इसी से सब ""अद्वारस भावदिसा जीवस्स गमागमो जेसू ।। दिशाएं और विदिशाएं निकलती हैं, जिन्हें क्षेत्रदिशा पुढवि-जल-जलण-वाया मूला-खंध-ग्ग-पोरबीया य । कहा जाता है। बि-ति-चउ-पंचिदिय-तिरिय-नारगा देवसंघाया ॥ रुचक से बाहर चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा के संमूच्छिम-कम्माऽकम्मभूमगनरा तहंतरहीवा। प्रारम्भ में दो-दो प्रदेश निकलते हैं, फिर चार-चार, भावदिसा दिस्सइ जं संसारी निययमेयाहिं ।। छह-छह, आठ-आठ-इस प्रकार दो-दो के क्रम से उनकी (विभा २७०२-२७०४) वद्धि होती जाती है। कर्म के वशीभूत होकर जीव विभिन्न दिशाओं में इसी रुचक से एक-एक आकाशप्रदेश से निष्पन्न भ्रमण करते हैं, वे भावदिशाएं कहलाती हैं। वे अठारह चार विदिशाएं निकलती हैं, जो चार दिशाओं के चार कोणों में होती हैं। इनके प्रदेशों में वृद्धि नहीं होती। १. पृथ्वी १०. त्रीन्द्रिय ऊर्ध्व और अधः दिशा चार-चार आकाशप्रदेशों से २. जल निष्पन्न हैं। इनमें भी वद्धि नहीं होती। ११. चतुरिन्द्रिय ३. अग्नि १२. तिर्यंच पंचेन्द्रिय दस दिशाओं के नाम ये हैं --ऐन्द्री (पूर्व), आग्नेयी, याम्या (दक्षिण), नैऋती, वारुणी (पश्चिम), बायव्या, ४. वायु १३. संमूच्छिम मनुष्य सोमा (उत्तर), ईशानी, विमला (ऊर्ध्व) और तमा ५. मूल १४. कर्मभूमिज मनुष्य ६. स्कंध १५. अकर्मभूमिज मनुष्य (अधः)। ७. अग्रबीज १६. अन्तर्वीपज मनुष्य तापक्षेत्र दिशा ८. पर्वबीज १७. नारक जेसि जत्तो सूरो उएइ तेसिं तई हवइ पुव्वा । ९. द्वीन्द्रिय १८. देव तावक्खित्तदिसाओ पयाहिणं सेसियाओ सि ।। 8. विशाओं के संस्थान (विभा २७०१) ताप - सूर्य के आश्रित दिशा तापक्षेत्र दिशा है। सगडुद्धिसंठिआओ महादिसाओ हवंति चत्तारि । भरतक्षेत्र आदि के निवासी लोगों के जिस दिशा में सूर्य मृत्तावली अचउरो दो चेव य हंति रुअगनिभा । उदित होता है, वह उनके लिए पूर्वदिशा है। सूर्य की (आवमवृ प ४३८) ओर मुंह किए खड़े मनुष्य की दाहिनी ओर दक्षिण, पीठ पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण--ये चार महाकी तरफ पश्चिम तथा बायीं ओर उत्तर दिशा होती है। दिशाए शकटाद्ध सस्था दिशाएं शकटोद्धि संस्थान से संस्थित हैं। चार विदिशाएं प्रज्ञापक दिशा मुक्तावलि संस्थान से तथा ऊर्ध्व और अधः दिशा रुचक __ संस्थान से संस्थित हैं। पण्णवओ जदभिमुहो सा पुव्वा सेसिया पयाहिणओ। (दिशाओं के विस्तृत वर्णन के लिए देखें - आचारांग (विभा २७०२) प्रज्ञापक के आधार पर प्रज्ञापक दिशा होती है। नियुक्ति ४०-६२) वह जिस दिशा के अभिमुख हो सूत्र आदि की व्याख्या १०. मनुष्यलोक-समयक्षेत्र करता है, वह पूर्व दिशा है । शेष दक्षिण आदि दिशाएं हैं। पुष्करवरद्वीपस्य अर्धपुष्करवरदीवडढं तंमि धातकीभावदिशा खंडे य दीवे जंबुद्दीवे य अड्ढाइज्जा दीवा समयखेत्तं । तं ____दिश्यते अयममुकः संसारीति यया सा दिक् भावः- च माणुसुत्तरेणं णगरमिव सव्वतो पागारपरिक्खित्तं । पृथिवीत्वादिलक्षणः पर्यायः । (आवमवृ प ४३९) (आवचू २ पृ २५८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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