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________________ लेश्या ५६२ लेण्यापरिणति और मृत्यु A चाहिए। तब छठे व्यक्ति ने कहा-हमें खाने तो केवल ० इक्यासी परिणाम-सत्ताईस के तीन-तीन प्रकार फल ही हैं, वे भूमि पर गिरे हुए ही हैं, उन्हें ही खा लेना (२७४३-८१)। चाहिए। पहले व्यक्ति के विचारों के समान कृष्ण लेश्या . दो सौ तयालीस परिणाम -इक्यासी के तीन-तीन के परिणाम और क्रमश: छठे व्यक्ति के विचारों के प्रकार (८१४३-२४३) । समान शुक्ल लेश्या के परिणाम हैं। ११. लेश्यापरिणति और मृत्यु ग्रामवध का दृष्टान्त लेसाहिं सव्वाहिं, पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । पढमओ भणति --- सजणवयं गोमाहिसं मारेमो, न वि कस्सवि उववाओ, परे भवे अत्थि जीवस्स ॥ बितिओ माणुसाणि, ततिओ पुरिसे, चउत्थो आउधहत्थे, लेसाहिं सव्वाहिं, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु । पंचमो जे जुझंति, छट्ठो कि एतेहिं मारिएहिं ? धणं न वि कस्सवि उववाओ परे भवे अत्थि जीवस्स ।। हीरंतु, एवं छल्लेसाओ समोतारेतव्वाओ। अंतमुहुत्तम्मि गए, अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव । (आवचू २ पृ ११३) लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं ।। छह चोर ग्रामवध के लिए निकले। उनमें से एक (उ ३४।५८-६०) चोर ने कहा-जो भी दृष्टि में आए, उन द्विपद, . पहले समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी चतुष्पद सभी को मार डालो। दूसरे ने केवल मनुष्य जाति जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। को और तीसरे ने केवल पुरुषों को मारने के लिए कहा। ० अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी तब चौथे ने कहा-केवल शस्त्रधारी पुरुषों को ही मारना जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। चाहिए । इसका प्रतिवाद करते हुए पांचवे ने कहा-जो ० लेश्याओं की परिणति होने पर अन्तर्महर्त बीत जाता हमारे साथ युद्ध करें, उन्हीं को मारना चाहिए। छठे व्यक्ति ने कहा हम किसी को क्यों मारें ? हमें तो ___है, अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक ___ में जाता है। केवल धन चाहिये। यहां प्रथम व्यक्ति के विचारों के समान कृष्णलेश्या के परिणाम और क्रमश: छठे व्यक्ति के इत्थं चैतन्मृतिकाले भाविभवलेश्याया उत्पत्तिकाले विचारों के समान शुक्ललेश्या के परिणाम ज्ञातव्य हैं। वा अतीतभवलेश्याया अन्तर्मुहूर्तमवश्यम्भावात् ।......" देवनारकाणां स्वस्वलेश्यायाः प्रागुत्तरभवान्तर्मुहूर्तद्वय१०. लेश्या-परिणामों के प्रकार सहितनिजायू:कालं यावदवस्थितत्वात....."कण्हलेसे तिविहो व नवविहो वा, सत्तावीसइविहेक्कसीओ वा। रतिए कण्हलेसेसु णे रइएसु उववज्जति कण्हलेसेसु उव्वदुसओ तेयालो वा, लेसाणं होइ परिणामो । ट्टइ, जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उव्वट्टति, एवं नीललेसेवि। इह च विविधः-जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदेन । (उशावृ प ६६२) नवविधः -यदेषामपि जघन्यादीनां स्वस्थानतारतम्य- वर्तमान भव का आयुष्य जब अन्तर्महत परिमाण चिन्तायां प्रत्येक जघन्यादित्रयेण गुणना एवं पुनस्त्रिकगुण- शेष रहता है उस समय परभव की लेश्या का परिणाम नया सप्तविशतिविधत्वमेकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिशद्- आरब्ध हो जाता है। वह परिणाम अन्तर्महत तक द्विशतविधत्वं च भावनीयम् । वर्तमान जीवन में रहता है और अन्तर्मुहूर्त तक परभव में (उ ३४।२० शावृ प ६५५) उत्पन्न होने के पश्चात् रहता है। इस प्रकार लेश्या की तारतम्य की अपेक्षा से लेश्याओं के परिणाम इस अवस्थिति दो अन्तर्मुहूत्तों तक रहती है। दो अन्तमहत्तों प्रकार हैं का नियम नारक और देवों पर भी लागू होता है, किन्तु ० तीन परिणाम-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट । वे जिस लेश्या में उत्पन्न होते हैं वह लेश्या उनके ० नौ परिणाम-इन तीनों के जघन्य आदि तीन-तीन आयुष्य पर्यन्त रहती है। जैसे कृष्ण लेश्या में उत्पन्न प्रकार (३४३=९)। नारक कृष्ण लेश्या में ही उद्वृत्त होता है। इसी प्रकार • सत्तावीस परिणाम-नौ के तीन-तीन प्रकार भवनपति आदि देव भी जिस लेश्या में उत्पन्न होते हैं, (९४३=२७)। उसी लेश्या में उद्धृत्त अथवा च्यवित होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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