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________________ लब्धि ५५२ लब्धि का अधिकारी ४. अन्य लब्धियां पुण्ड्रजातीय इक्षु को खाने वाली गायों के दूध से गणहर-तेया-हारय-पुलाय-वोमाइगमणलद्धीओ। निकाला हुआ, अग्नि की मन्द आंच में तपाया हुआ घी एवं बहुगाओ वि य सुन्वति न संगिहीआओ। विशिष्ट वर्ण आदि से युक्त होता है। घृतास्रवलब्धि वाले (विभा ८०३) के वचन में उस घत के समान स्निग्धता होती है। गणधर, तेजःसमुद्घात, आहारकशरीरनिर्माण, व्यञ्जनलब्धि पुलाक, आकाशगमन आदि अनेक लब्धियां श्रुत-विश्रुत हैं, .."परियट्टणाए णं वंजणाई जणयइ बंजणलद्धि च उप्पाएइ। किन्तु वे सब संग्रहीत नहीं हैं। "विगलितान्यपि गुणयतो झगित्युत्पतन्तीत्युत्पादितेजोलब्धि छटठं छठेण अणि क्खित्तेणं तवोकम्मेणं आयावेति, तान्युच्यन्ते, तथा तथाविधकर्मक्षयोपशमतो व्यञ्जनलब्धिम् । (उ २९।२२ शाव प ५८४) पारणए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएण जावेद जाव छम्मासा, से णं संखित्तविउलतेयलेस्सो सूत्रों की परिवर्तना के द्वारा तदावारक कर्म का भवति। (आवहाव १ पृ१४३) क्षयोपशम होता है, जिससे विस्मृत व्यंजन शीघ्र स्मृति में जो छह महीने तक लगातार बेले-बेले (दो-दो दिन आ जाते हैं । इससे एक व्यञ्जन के आधार पर शेष व्यंजनों को प्राप्त करने की क्षमता आ जाती है। इसे का उपवास) की तपस्या करता है, आतापना लेता है, व्यंजन लब्धि (वर्ण-विद्या) कहते हैं। पारणा में छिलके सहित मुट्ठीभर कुल्माष और एक चुल्लू पानी लेता है, उसे संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्या प्राप्त गन्धौषधि होती है। एए अन्ने य बहू जेसि सव्वे य सुरभओऽवयवा। पुलाक लन्धि रोगोवसमसमत्था ते होंति तओसहि पत्ता । लद्धिपुलाओ पूण जस्स देविदरिद्धिसरिसा रिद्धी । (विभा ७८२) सो सिंगणादियकज्जे समुप्पण्णे चक्कवट्टिपि सबलवाहणं जिन मुनियों के मल-मूत्र अथवा शरीर के अन्य चुणेउं समत्थो। अवयव-केश, नख, दांत आदि सुगंधित हो जाते हैं, वे पूलाक लब्धि से सम्पन्न मुनि की ऋद्धि इन्द्र की उन-उन अवयवों से रोगों का उपशमन करने में समर्थ ऋद्धि के समान होती है। श्रृंगनादित संघकार्य उत्पन्न होते हैं। उन-उन अवयवों के आधार पर वे केशौषधि, होने पर वह चक्रवर्ती की सेना तथा रथ आदि सभी नखौषधि आदि से संपन्न कहलाते हैं। वाहनों को चूर्ण करने में समर्थ होता है । ५. लब्धि का अधिकारी आकाशगामी विद्या __ ऋद्धीश्च प्राप्नुवन्ति विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वापूर्वार्थजेणद्धरिया विज्जा आगासगमा महापरिन्नाओ। प्रतिपादकं श्रुतमवगाहमाना: श्रुतसामर्थ्यतस्तीवां तीव्रतरां वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं ।। शुभभावनामधिरोहन्तोऽप्रमत्तयतयः । भणइ अ आहिंडिज्जा जंबुद्दीवं इमाइ विज्जाए। 'अवगाहते च स श्रुतजलधि प्राप्नोति चावधिज्ञानम् । गंतुं च माणुसनगं विज्जाए एस मे विसओ ।। मानसपर्यायं वा ज्ञानं कोष्ठादिबुद्धिर्वा ।। (आवनि ७६९, ७७०) चारणवैक्रियसवौंषधताद्या वा लब्धयस्तस्य । अन्तिम दस पूर्वधर आर्य वज्र ने आचारांग के सातवें प्रादुर्भवन्ति गुणतो बलानि वा मानसादीनि ॥' अध्ययन महापरिज्ञा से आकाशगामी विद्या का उद्धार (नन्दीमवृ प १०६) किया। इस विद्या के प्रभाव से मुनि जंबूद्वीप का पर्यटन जो उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व अर्थ के प्रतिपादक विशिष्ट कर मानुषोत्तर पर्वत तक जा सकता है। श्रुत का अवगाहन करते हैं और श्रुत के सामर्थ्य से तीव्रघृतास्रव लब्धि तीव्रतर शुभ भावना का आरोहण करते हैं, वे अप्रमत्त घृतमपि पुंड्रेक्षुचारिगोक्षीरसमुत्थं मन्दाग्निक्वथितमति- मुनि ऋद्धियां प्राप्त करते हैं। विशिष्ट वर्णाद्युपेतम् । घतमिव वचनमाश्रवन्तीति घता- 'जो श्रुतसागर का अवगाहन करते हैं, उन्हें अवधिश्रवाः । (आवमवृ प ८०) ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, कोष्ठ आदि बुद्धि, चारणलब्धि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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