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________________ लब्धि जाती है । अतः लौटते समय अतिशय शक्ति के कारण एक ही उड़ान में मुनि स्वस्थान में आ जाता है । आशीविष लब्धि आसीविसोविव कुवितो जो देहविणिवायसामत्थजुत्तो सो आसी विसलद्धीओ भन्नति । ( आवचू १ पृ ६९ ) आशीविष सर्प की तरह जो कुपित होकर दूसरों को मारने में समर्थ होता है, वह आशीविषलब्धिसम्पन्न है । आसी दाढा तग्गयमहाविसासीविसा दुविहभेया । ते कम्मजाइभेएण णेगहा विहविगप्पा || जातितो वृश्चिक- मण्डूक- सर्प मनुष्यजातयः क्रमेण बहु- बहुत - बहुतमविषाः वृश्चिकविषं हि उत्कृष्टतोऽर्श्वभर क्षेत्र प्रमाणं शरीरं व्याप्नोतीति, मण्डूकविषं तु भरतक्षेत्र प्रमाणम्, भुजङ्गविषं तु जम्बूद्वीपप्रमाणम्, मनुष्यविषं तु समयक्षेत्र प्रमाणं वपुर्व्याप्नोति । कर्मतस्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चः, मनुष्या, देवाश्चाssसहस्रारादिति । एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणत आशीविषवृश्चिक - भुजङ्गादिसाध्य कर्मक्रियां कुर्वन्ति शापप्रदानादिना परं व्यापादयन्तीत्यर्थः । देवाश्चाऽपर्याप्तावस्थायां तच्छक्तिमन्तो द्रष्टव्याः, ते हि पूर्व मनुष्य भवे समुपार्जिताशीविषलब्धयः सहस्रारान्तदेवेष्वभिनवोत्पन्ना अपर्याप्तावस्थायां प्राग्भविकाऽऽशीविषलब्धिमन्तो मन्तव्याः, ततः परं तल्लब्धिनिवृत्तेः । पर्याप्ता अपि देवाः शापादिना परं विनाशयन्ति, किन्तु लब्धिव्यपदेशस्तदा न प्रवर्तते । ( विभा ७९१ मवृ पृ ३२३) जिसके आशी - दाढा में विष होता है, वह आशीविष है । उसके दो प्रकार हैं १. जाति - आशीविष - जो जन्म से आशीविष होते हैं। उनके चार प्रकार हैं १. वृश्चिक - बिच्छू का विष उत्कृष्टतः अर्धभरतक्षेत्र प्रमाण शरीर को व्याप्त कर सकता है। २. मंडूक - मेंढक का विष सम्पूर्ण भरतक्षेत्रप्रमाण शरीर को व्याप्त कर सकता है । ३. भुजंग - सर्प का विष जम्बूद्वीपप्रमाण शरीर को प्रभावित कर सकता है । ४. मनुष्य - - मनुष्य का विष सम्पूर्ण मनुष्यलोक ( ढाई द्वीपप्रमाण क्षेत्र) को प्रभावित कर सकता है । Jain Education International लब्धि के बीस प्रकार २. कर्मआशीविष- जो तप अनुष्ठान अथवा किसी विशिष्ट गुण का विकास कर बिच्छू, सर्प आदि जैसी क्रिया करने में कुशल होते हैं- शाप आदि के द्वारा दूसरों को मारने में समर्थ होते हैं, वे कर्मतः आशीविष हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और सहस्रार कल्प तक के देव कर्मतः आशीविष हो सकते हैं। यहां ज्ञातव्य है कि मनुष्य में उपार्जित आशीविष लब्धि वाले जीव मर कर जब सहस्रार पर्यंत विमानों में उत्पन्न होते हैं, तब उन देवों में अपर्याप्त अवस्था में ही वह लब्धि संभव है, पर्याप्त होते ही वह लब्धि क्षीण हो जाती है । पर्याप्त अवस्था में वे देव शाप आदि के द्वारा दूसरों का विनाश कर सकते हैं, किन्तु वह लब्धि उनमें नहीं होती। ३. लब्धि के बीस प्रकार ५५० केइ भणति वीसं लद्धीओ तं न जुज्जए जम्हा । लद्धित्ति जो विसेसो अपरिमिया ते य जीवाणं ॥ ( विभा ८०२ ) कुछ मानते हैं कि लब्धियां बीस ही हैं - यह कथन ऐकांतिक नहीं है । क्योंकि लब्धियां विशेष- अतिशय हैं । वे जीवों को कर्मक्षय आदि से प्राप्त होती हैं । वे अपरिमित हैं । केचिदाचार्यदेश्यीया विंशति संख्या नियमिता एव लब्धी: प्राहु:-- सव्वे य । संभिन्ने ॥ आमोसही य खेले जल्ल- विप्पे य होइ कोट्ठे य बीयबुद्धी पयाणुसारी य रिजुमइ - विउल-क्खीरमहु - अक्खीणे विउब्वि-चरणे य । विज्जाहर - अरहंता चक्की बल-वासु वीस इमा ॥ ( विभामवृ पृ ३२८ ) कुछ आचार्य नियमतः बीस लब्धियां मानते हैं । वे ये हैं १. आमषषधि २. श्लेष्मौषधि ३. जल्लोषधि ४. विप्रुडोषधि ५. सर्व औषधि ६. कोष्ठबुद्धि ७. बीजबुद्धि ८. पदानुसारिणीबुद्धि ९. संभिन्नश्रोत १०. ऋजुमति For Private & Personal Use Only ११. विपुलमति १२. क्षीरमध्वाश्रव १३. अक्षीणमहानस १४. वैक्रिय १५. चारण १६. विद्याधर १७. अर्ह १८. चक्रवर्ती १९. बलदेव २०. वासुदेव www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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