SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजीमती रात्रिभोजनविरमण अह सो वि रायपुत्तो, समुद्दविजयंगओ । उग्गं तवं चरित्ताणं, जाया दोष्णि वि केवली । भीयं पवेविय दट्ठं, इमं वक्कं उदाहरे ।। सव्वं कम्म खवित्ताणं, सिद्धि पत्ता अणत्तरं ।। रहनेमी अहं भद्दे, सुरूवे ! चारुभासिणि !। (उ २२।४६,४८) ममं भयाहि सुयण ! न ते पीला भविस्सई ॥ रहनेमिस्स भगवओ गिहत्थए चउर इंति वाससया । (उ २२॥३३-३७) संवच्छर छउमत्थो पंचसए केवली हुंति ॥ एक बार राजीमती अरिष्टनेमि को वंदना करने नववाससए वासाहिए उ सव्वाउगस्स नायव्वं । रेवतक पर्वत पर जा रही थी। बीच में वर्षा से भीग गई। एसो उ चेव कालो रायमईए उ नायव्वो । वर्षा हो रही थी, अंधेरा छाया हुआ था, उस समय वह (उनि ४४६, ४४७) लयन (गुफा) में ठहर गई। (उस गुफा को आज भी संयमिनी राजीमती के इन सभाषित वचनों को 'राजीमतीगुफा' कहा जाता है—विविधतीर्थकल्प पृष्ठ ६)। सुनकर रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश उसी गुफा में मुनि रथनेमि पहले से ही रुका हआ था। से हाथी होता है। उग्रतप का आचरण कर तथा सब चीवरों को सुखाने के लिए फैलाती हई राजीमती को। कर्मो को खपा राजीमती और रथनेमि दोनों अनुत्तर रथनेमि ने यथाजात (नग्न) रूप में देखा। वह भग्नचित्त । सिद्धिगति को प्राप्त हुए । दोनों का गृहस्थपर्याय चार सौ वर्ष, छद्मस्थपर्याय हो गया। बाद में राजीमती ने भी उसे देख लिया। एकांत में उस संयति को देख वह डरी और दोनों भुजाओं . र एक वर्ष तथा केवलीपर्याय पांच सौ वर्ष था। इस प्रकार के गुम्फन से वक्ष को ढांककर कांपती हई बैठ गई। उस उनका संपूर्ण आयुष्य नौ सौ एक वर्ष का था। समय समुद्रविजय के अंगज राजपुत्र रथनेमि ने राजीमती रात्रिभोजनविरमण-रात्रिभोजन का वर्जन । को भीत और प्रकम्पित देखकर यह कहा- भद्रे ! मैं १. रात्रिभोजनविरमण : छठा व्रत रथ नेमि हूं। सुरूपे ! चारुभाषिणि ! तू मुझे स्वीकार २. रात्रिभोजनवर्जन और अहिंसा कर । सुतनु ! तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी। ३. रात्रिभोजनविरमण उत्तरगुण जइ सि रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो। ४. रात्रिभोजनविरमण मूलगुण तहा वि ते न इच्छामि, जइ सि सक्खं पुरंदरो । * श्रावक और रात्रिभोजन का विकल्प (द. श्रावक) (पक्खंदे जलियं जोई, धमकेउं दुरासयं । ५. रात्रिभोजनविरमण और शासनभेद नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ।।) ६. रात्रिभोजन के द्रव्य, क्षेत्र .. अहं च भोयरायस्स, तं च सि अंधगवण्हिणो । • रात्रिभोजन : एक अनाचार (व. अनाचार) मा कूले गंधणा होमो, संजमं निहओ चर ॥ (उ २२।४१,४३) १.रात्रिभोजनविरमण : छठा व्रत राजीमती ने रथनेमि से कहा-यदि तू रूप से अहावरे छटठे भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं । वैश्रवण है, लालित्य से नलकूबर है, और तो क्या, यदि . सव्वं भंते ! राईभोयणं पच्चक्खामि । से असणं वा पाणं तू साक्षात् इन्द्र है तो भी मैं तुझे नहीं चाहती । (अगंधन । वा खाइमं वा साइमं वा, नेव सयं राई भुजेज्जा नेवन्नेहिं कूल में उत्पन्न सर्प ज्वलित, विकराल, धूमशिख-अग्नि राई भंजावेज्जा राई भंजते वि अन्ने न समण जाणेज्जा में प्रवेश कर जाते हैं परन्तु (जीने के लिए) वमन किए जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते ।) मैं को मार तिन मणजाणामि । भोजराज की पुत्री हूं और तू अन्धकवृष्णि का पुत्र । हम (द ४।सूत्र १६) कुल में गन्धन सर्प की तरह न हों। तू स्थिर मन हो-- भंते ! छठे व्रत में रात्रिभोजन की विरति होती है । संयम का पालन कर । भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता तीसे सो बयणं सोच्चा, संजयाए सुभासियं । हं। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-किसी भी वस्तु को अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ।। रात्रि में मैं स्वयं नहीं खाऊंगा, दूसरों को नहीं खिलाऊंगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy