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________________ योगसंग्रह १८. प्रणिधि - अध्यवसाय की एकाग्रता । १९. सुविधि सद् अनुष्ठान । २०. संवर - आश्रवों का निरोध । २१. आत्मदोषोपसंहार अपने दोषों का उपसंहरण | २२. सर्वकामविरक्तता सर्व विषयों से विमुखता । २३. प्रत्याख्यान मूलगुण विषयक त्याग । २४. प्रत्याख्यान उत्तरगुण विषयक त्याग । २५. व्युत्सर्ग- शरीर, भक्तपान, उपधि तथा कषाय का विसर्जन ५४० २६. अप्रमाद -आत्मा की सतत स्मृति । २७. लवालव - सामाचारी के पालन में सतत जागरूकता । २८. ध्यानसंवरयोग - महाप्राण ध्यान की साधना । २९. मारणांतिक उदय मारणांतिक वेदना के उदय होने पर भी शान्त और प्रसन्न रहना । ३०. संग- परिज्ञा आसक्ति का त्याग ३१. प्रायश्चित्तकरण दोष-विशुद्धि का अनुष्ठान । ३२. मारणांतिक आराधना-मृत्युकाल में आराधना । योगसंग्रह के चार उदाहरण उज्जेणीए धणवसु अणगारे धम्मघोस चंपाए । asate सत्थविभम वोसिरणं सिज्झणा चेव ॥ गवरं च विवक्षण मुंडिबंब अजपूसभूई य । आयाण समित्ते सुहुमे झाणे विवादो य ॥ रोहीडगं य नवरं ललिओ गुड्डी अ रोहिणी गणिआ । धम्मरु कटुअदुद्धिदाणाययणे अ कंमुदए । नयरी व चंपनामा जिणदेवो सत्यवाह अहिछत्ता । अडवी य तेण अगणी सावय संगाण वोरिणा ॥ ( आवनि १२८१,१३१७- १३१९) १. दुधर्मिता योगसंग्रह उज्जयिनी नगरी के श्रेष्ठी धनवसु का सार्थ चम्पा मगरी की ओर जा रहा था। उस सार्थ के साथ धर्मपोष मुनि भी थे। भीलों के आतंक के कारण सार्थ अटवी में भटक गया। सार्थ के लोग कंदमूल खाकर अपना पेट भरते । उन्होंने मुनि को भी आमंत्रित किया, किन्तु मुनि के लिए कंदमूल अब्राह्म थे, अतः मुनि ने अदीन भाव से भक्तप्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। उन्होंने ध्यानमुद्रा में कैवल्य प्राप्त किया और मुक्त हो गए। इस प्रकार मुनि ने दुढ़धर्मिता से योगों का संग्रह किया । Jain Education International योगसंग्रह के चार उदाहरण २. ध्यानसंवर योगसंग्रह शिम्बवर्धन नगर मुंडिकाचक राजा पुष्यभूति आचार्य । एक बार उन बहुश्रुत आचार्य के मन में संकल्प जागा कि 'सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश करूं, जो महाप्राणध्यान के सदृश होता है। इसमें योगनिरोध कर निश्चेष्ट होना होता है। इस ध्यान की निविघ्नता के लिए बहुश्रुत शिष्य की अपेक्षा रहेगी। अभी यहां जो शिष्य हैं, वे सब अगीतार्थ हैं यह सोचकर आचार्य ने बहिविहारी गीतार्थ शिष्य पुष्यमित्र को बुलाया और ध्यानकक्ष के द्वार पर उसे प्रहरी के रूप में नियुक्त कर ध्यानस्थित हो गये । पुष्यमित्र किसी को भी वन्दना के लिए कक्ष के भीतर नहीं जाने देता था। इससे अन्य शिष्यों के मन में कुतूहल और संदेह हो गया। एक शिष्य ने उन्हें पूर्णतः निश्चेष्ट देखकर कह दिया कि आचार्य तो कालधर्म को प्राप्त हो गये हैं, किन्तु पुष्यमित्र बता नहीं रहा है, कोई बंदाल साध रहा होगा। उसने कहा- आचार्य जीवित हैं, ध्यान कर रहे हैं, आप लोग कोई विघ्न न करें। किसी ने इस बात का विश्वास नहीं किया, उससे झगड़ने लगे। राजा को भी बुला लिया। राजा ने आचार्य की मृत्यु की घोषणा कर शिविका तैयार करवाई। आचार्य ने पुष्यमित्र से ध्यान से पूर्व ही कह दिया था कि कोई विशेष आपत्तिजनक स्थिति हो तो मेरे अंगूठे को दबा देना इस निर्देश के अनुसार शिष्य ने अंगूठे का स्पर्श किया और आचार्य ने तत्काल ध्यान को सम्पन्न कर उपालम्भ दिया कि मेरे ध्यान में यह व्याघात क्यों किया ? इस प्रकार आचार्य ने ध्यान-संदरयोग से योग संगृहीत किये। ३. मारणांतिक वेदना - अधिसहन योगसंग्रह - रोटिक नगर में ललिता गोष्ठी रोहिणी गणिका उस गोष्ठी के लिए भोजन पकाती थी । एक दिन उसने लौकी (तुम्बा) की सब्जी अत्यन्त आरम्भपूर्वक बनाई। उसने गंध से जान लिया कि लौकी कड़वी है । गोष्ठी के सदस्यों के तिरस्कार के भय से उसने तत्काल निर्णय लिया मैं दूसरी लौकी की सब्जी बना देती हूं और इसे भिक्षाचरों को दे देती हूं उसी समय धर्मरुचि अनगार मासक्षमण के पारणे के लिए उस पर में प्रविष्ट हुए। उसने वह पूरी सब्जी मुनि के पात्र में डाल दी। मुनि उसे लेकर उपाश्रय में आए, गुरु को निवेदित किया। गुरु ने देखा और जान लिया कि यह आहार जो भी करेगा वह मृत्यु को प्राप्त होगा। गुरु ने उसे विसर्जित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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