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________________ मन:पर्यवज्ञान ५१० मनःपर्यवज्ञान की परिभाषा सर्वोत्कृष्ट विकास अनुत्तर देवों में होता है । मन से जो मनोद्रव्य को सर्वात्मना जानता है, वह मनःपर्यवज्ञान होने वाले ज्ञान को संव्यवहार प्रत्यक्ष कहा जा सकता है। (द्र. ज्ञान) २. मनःपर्यवज्ञान की परिभाषा मन एक साथ अनेक अर्थों को ग्रहण कर सकता है मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतियत्थपागडणं । किन्तु एक साथ दो क्रियायें या दो उपयोग नहीं हो माणुस खित्तनिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवओ। सकते। (द्र. निह्नव) (आवनि ७६) ___ मन अप्राप्यकारी है अतः उसके व्यंजनावग्रह नहीं मनःपर्यवज्ञान संज्ञीपंचेन्द्रिय के मनश्चिन्तित अर्थ होता। (द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान) को प्रकट करता है। इसका संबंध मनुष्य क्षेत्र से है। मनरूप में परिणत मन के पुदगलस्कन्धों को मन:- यह गुणप्रत्ययिक है, चरित्रवान संयमी के ही होता है। पर्यवज्ञानी जानता है। (द्र. मन:पर्यवज्ञान) जेण उप्पण्णण णाणेण मास्या जेण उप्पण्णेण णाणेण मणुस्सखेत्ते . सन्निजीवेहिं दीर्घकालिकी संज्ञा : संज्ञीश्रुत का भेद । मणपातोग्गाणि दव्वाणि मण्णिज्जमाणाणि जाणति तं (द्र. श्रुतज्ञान) मणपज्जवणाणं भन्नति । जहा पिहजणो अन्नो अन्नस्स कस्सइ आगारे दळूणं दुमणं सुमणं वा भावं जाणति, मनःपर्यवज्ञान -मनोवर्गणा के आधार पर मान एवं मणपज्जवणाणीवि संनीणं पंचेदियाणं मणोगते भावे सिक भावों को जानने वाला अती जाणति, जहा एरिसेहिं दव्वेहिं मण्णिज्जमाणेहिं एरिसं न्द्रिय ज्ञान। चितितं भवति। (आवचू १ पृ७१) जिस ज्ञान के उत्पन्न होने पर मुनि मनुष्य क्षेत्र के १. मनःपर्यवज्ञान का निर्वचन संज्ञी जीवों के मनःप्रायोग्य मनरूप में परिणत मनो २. मनःपर्यवज्ञान की परिभाषा द्रव्यों को जानता है, वह मनःपर्यवज्ञान है। * मनःपर्यवज्ञान : प्रत्यक्ष ज्ञान (द्र. ज्ञान) जैसे एक सामान्य व्यक्ति किसी व्यक्ति के आकार* मन:पर्यवज्ञान स्वार्थ (द्र. ज्ञान) प्रत्याकार को देखकर उसके अच्छे-बुरे भाव जान लेता ३. मन:पर्यवज्ञान के प्रकार है, वैसे ही मनःपर्यवज्ञानी भी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के ४. मनःपर्यवज्ञान का विषय मनोगत भाव जान लेता है---अमुक व्यक्ति ने अमुक ५. मनःपर्यवज्ञान की अर्हता प्रकार के मनोद्रव्य से मनन किया है, अतः इसका चिंतन ६. मनःपर्यवज्ञान की पश्यत्ता ऐसा होना चाहिए। ७• मनःपर्यवज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है मूणइ मणोदव्वाइं नरलोए सो मणिज्जमाणाई। .. दव्वमणोपज्जाए जाणइ पासइ य तग्गएणते । ८. मन:पर्यवदर्शन नहीं होता तेनावभासिए उण जाणइ बज्झेऽणमाणेणं । ९. मन:पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में अन्तर (विभा ८१३,८१४) ० मन:पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य मनःपर्यवज्ञानी तिर्यक्लोक में संज्ञी जीवों द्वारा १०. मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य गहीत मनरूप में परिणत द्रव्यमन के अनन्त पर्यायों तथा * मन:पर्यवज्ञान : एक लब्धि तद्गत वर्ण आदि भावों को जानता देखता है। वह * तीर्थकर और मनःपर्यवज्ञान (द्र. तीर्थकर) | द्रव्यमन से प्रकाशित चिन्तनीय वस्तु -घट, पट आदि १. मनःपर्यवज्ञान का निर्वचन को अनुमान से जानता है। सणिणा मणतेण मणिते मणोखंधे अणते अणंतपदेसिए मनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्यवः-सर्वतो मनो दव्वद्वताए तरंगते य वण्णादिए भावे मणपज्जवनाणेणं द्रव्यपरिच्छेदः । मनांसि --मनोद्रव्याणि पर्ये ति -- पच्चक्खं पेक्खमाणो जाणाति त्ति भणितं । मणितमत्थं सर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनःपर्यायम् । (नन्दीमवृ प ६६) पूण पच्चक्खं ण पेक्खति, जेण मणालंबणं मुत्तममत्तं वा। मन में होने वाले अथवा मन के पर्यव मनःपर्यव सो य छदुमत्थो तं अणुमाणतो पेक्खति त्ति अतो हैं । अर्थात् सर्वथा मनोद्रव्य का परिच्छेद मनःपर्यव है। पासणता भणिता । (नन्दीचू पृ २४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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