SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 553
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन परिव्राजक सात विद्याओं में पारंगत है— १. वृश्चिक २. सर्प १. मायूरी २. नाकुली ३. विडाली ५. वही ६. काक ७. पोताकी । ३. मूषक ४. मृगी मैं तुझे इन विद्याओं की प्रतिपक्षी सात विद्याएं दीर्घकालिकी संज्ञा है । यही मन है । सिखा देता हूं, जो पठितसिद्ध हैं ५. सिंही ६. उलूकी ७. उलावकी । ५०८ ४. व्याघ्री यदि इन विद्याओं के अतिरिक्त किसी दूसरी विद्या की आवश्यकता पड़े तो तुम इस रजोहरण को घुमाना, इससे तुम अजेय हो जाओगे, इन्द्र भी तुझे पराजित नहीं कर सकेगा । बाद में रोहगुप्त द्वारा पराजित होने पर परिव्राजक ने क्रुद्ध हो वृश्चिक विद्या का प्रयोग किया - रोहगुप्त के विनाश के लिए बिच्छुओं को छोड़ा। रोहगुप्त ने उसकी प्रतिपक्षी मायूरी विद्या से मयूरों को छोड़ा, जिससे बिच्छू समाप्त हो गये । इसी प्रकार परिव्राजक द्वारा किये गये सर्प आदि विद्याओं के प्रयोग को रोहगुप्त ने विफल बना दिया । अंत में परिव्राजक ने गर्दभी विद्या का प्रयोग किया। रोहगुप्त ने अभिमंत्रित रजोहरण का प्रयोग कर उसे भी विफल कर दिया । गुप्त से त्रैराशिक मत की स्थापना हुई । ( द्र. निह्नव) मतिज्ञान- इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाला ज्ञान । ( द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान ) मन- इन्द्रियों द्वारा ज्ञेय सब विषयों को जानने वाला आलोचनात्मक ज्ञान । Jain Education International चित्त ही मन चित्तं मनोद्रव्योप रंजितं । ( अनुचू पृ १३ ) मनोवगंणा के पुद्गलों से उपरंजित चित्त ही मन है । दीर्गकालिको संज्ञा ही मन इह दीहकालिगी कालिगित्ति सण्णा जया सुदीहं पि । संभरइ चितेइ य किह णु कायव्वं ॥ भूयमेस्सं मन के कार्य कालियसणि त्ति तओ जस्स तई सो य जो मणोजोग्गे । खंधेणंते घेत्तुं मन्नइ तल्ल द्धिसंपण्णो ॥ ( विभा ५०८, ५०९) जिसके द्वारा अतीत की स्मृति और भविष्य की चिन्ता - कल्पना की जाती है, वह कालिकी अथवा मनोलब्धि सम्पन्न जीव मनोवर्गणा के अनन्त स्कन्धों को ग्रहण कर मनन करता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है । यह संज्ञा मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होती है । ( जैन साहित्य में मन के लिए कालिकी संज्ञा, दीर्घकालिक संज्ञा, सम्प्रधारण संज्ञा, नोइन्द्रिय, अनिन्द्रिय और छुट्टी इन्द्रिय इन शब्दों का प्रयोग मिलता है 1) मन (दीर्घकालिक संज्ञा ) के कार्य कालिओवएसेणं जस्स णं अत्थि ईहा, अपोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिता, वीमंसा से णं सण्णीति भइ । जस्स णं नत्थि ईहा, अपोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिता, वीमंसा --- सेणं असण्णीति लब्भइ । ( नन्दी ६२ ) सद्दाइत्थमुवलद्धं अण्णत - वइरेगधम्मेहि ईहइ ति । तस्सेव परधम्मपरिच्चागे सधम्माणुगतावधारणे य 'अवोहो' त्ति अवातो । विसेसधम्मण्णेसणा मग्गणा, जहा मधुर- गंभीरत्तणतो एस संखसद्द इति 1 वीसस प्पयोगुब्भवणिच्चमणिच्चं चेत्यादि गवेसणा । जो यणागते य चितयति 'कहं वा तं तत्थ कातव्वं ?' इति अण्णोष्णालंबणाणुगतं चित्तं चिता आत-पर- इह-परत्थयहिताऽहितविमरिसो वीमंसा । ( नन्दी पृ ४६ ) मन के कार्य हैं । छह ईहा - शब्द आदि अर्थ के विषय में अन्वय और व्यतिरेक धर्मों का विचार करना । अपोहव्यतिरेक धर्म का परित्याग कर अन्वय धर्म का अवधारण करना । मार्गणा - विशेष धर्म का अन्वेषण करना । यथा- मधुर और गंभीर ध्वनि के कारण यह शब्द शंख का है । गवेषणा - स्वभावजन्य, प्रयोगजन्य, नित्य, अनित्य आदि का विचार करना । चिन्ता - यह कार्य कैसे करना चाहिये ? इस प्रकार का चिन्तन करना | विमर्श - हित-अहित की मीमांसा करना । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy