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________________ भव्यत्व और पारिणामिक भाव ४७७ भव्य हैं, उन्हें भगवान् कहते हैं। (निपूण, विकसित)—ये पर्यायवाची शब्द हैं। भव्यत्व धैर्यसौभाग्यमाहात्म्ययशोऽर्कश्रुतधीश्रियः । अनादि पारिणामिक भाव है। तपोऽर्थोपस्थपूयेशप्रयत्नतनवो भगाः॥ ___ अनंत (साधारण) वनस्पति के जीव भी भव्य हो (उशावृ प ३०६) सकते हैं। भग शब्द के अनेक अर्थ हैं ......"जीवत्ते सामण्णे भव्वोऽभव्वो त्ति को भेओ?|| धैर्य, सौभाग्य, माहात्म्य, यश, स , बुद्धि , दब्वाइत्ते तुल्ले जीव-नहाणं सभावओ भेओ। लक्ष्मी, तप, अर्थ, योनि, पुण्य, ईश, प्रयत्न और तनु । जीवाजीवाइगओ जह, तह भव्वेयरविसेसो ।। इनसे युक्त व्यक्ति को भगवान् कहते हैं । (विभा १८२१,१८२३) भरत-भगवान् ऋषभ का पुत्र, प्रथम चक्रवर्ती ।। जैसे द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि तुल्य होने पर भी जीव और आकाश में चेतनत्व और अचेतनत्व कृत स्वाभाविक (द्र. चक्रवर्ती) भेद है, वैसे ही जीवत्व तुल्य होने पर भी जीवों में भव्यभवनपति-पाताल लोक के भवनों में वास करने अभव्यकृत भेद है। वाले देव । (द्र. देव) होउ व जइ कम्मकओ न विरोहो नारगाइभेउ व्व । भव भावना-संसार की नाना परिणतियों तथा . भणह य भव्वाऽभव्वा सभावओ तेण संदेहो ।। जन्म-मरण के चक्र से होने वाले (विभा १८२२) विविध परिवर्तनों का चिन्तन जीव स्वभाव से ही भव्य या अभव्य होते हैं। करना। (द्र. अनुप्रेक्षा) भव्यत्व-अभव्यत्व नारकत्व-देवत्व की तरह कर्मकृत नहीं, भव्य-मोक्षगमन के योग्य । स्वाभाविक अवस्था है। २. भव्यत्व और पारिणामिक भाव १. भव्य-अभव्य एवं पि भव्वभावो जीवत्तं पिव सभावजाईओ। २. भव्यत्व और पारिणामिक भाव पावइ निच्चो तम्मि य तदवत्थे नत्थि निव्वाणं ।। ३. भव्य-अभव्य अनन्त जह घडपुव्वाभावोऽणाइसहावो वि सनिहणो एवं । ४. सब भव्य सिद्ध नहीं होते जइ भव्वत्ताभावो भवेज्ज किरियाए को दोसो ?॥ ५. भव्य और ग्रंथिभेद (विभा १८२४,१८२५) * अभव्य के यथाप्रवृत्तिकरण (द्र. करण) जीव के जीवत्व की तरह उसका भव्यत्व भी स्वा* चक्रवर्ती और इन्द्र भव्य (द्र. चक्रवर्ती) भाविक होने से नित्य और अविनाशी हो जायेगा और ६. तीर्थकर भव्यों के त्राता ऐसा होने से जीव सिद्धत्व को कैसे प्राप्त कर सकेगा? क्योंकि सिद्ध न भव्य होते हैं, न अभव्य । १. भव्य-अभव्य इस जिज्ञासा के समाधान में घट और मिट्टी का भव्या अनादिपारिणामिकसिद्धिगमनयोग्यतायुक्ताः, दष्टांत मननीय है-मिट्टी में घट का प्राक् अभाव अनादितविपरीता अभव्याः। (नन्दोमवृ प २४७) कालीन है किन्तु घट निर्मित हो जाने पर वह अनादि अनादिपारिणामिकभव्यभावयुक्तः सत्त्वविशेषो भव्य प्राक् अभाव भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार तपश्चरण उच्चते । भव्यो योग्यो दलमिति पर्यायाः। आदि के द्वारा जीव मुक्त हो जाता है और मुक्तावस्था में .... — भव्योऽनन्तवनस्पत्यादिरपि स्यात् । भव्यत्व नहीं रहता। ___ (विभाकोवृ पृ ५) भव्यत्वमाश्रित्य पुनरनादि: सान्तः"सिद्धावस्थायां जिनमें मुक्त होने की योग्यता नहीं होती, वे जीव भव्याभव्यत्वनिवृत्तेः । जीवत्वमभव्यत्वं चानादिरनन्तः । अभव्य और जिनमें मोक्षगमन की योग्यता होती है (विभामवृ १ पृ ७३४) वे जीव भव्य कहलाते हैं । भव्य, योग्य, दल भव्यत्व, अभव्यत्व और जीवत्व-ये पारिणामिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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