SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादशांग गणिपिटक अंगप्रविष्ट से णं अंगट्टयाए नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, तिण्णि सूत्रालापकपदों का परिमाण संख्येय हजार है। वग्गा, तिण्णि उद्देसणकाला, तिण्णि समुद्देसणकाला, विपाश्रत संखेज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं"। (नन्दी ८९) . "विवागसुए णं सुकड-दुक्कडाणं कम्माणं फलअनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तरविमानों में उत्पन्न विवागे आघविज्जइ । तत्थ णं दस दुहविवागा, दस व्यक्तियों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, समवसरण, सूहविवागा।.... राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक ओर से गं अंगट्टयाए इक्कारसमे अंगे, दो सुयक्खंधा, पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षा- वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समद्देसणपर्याय का काल, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, काला, संखेज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं' । (नन्दी ९१) संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, पादोपगमन, अनुत्तरविमान _ विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फलमें उत्पत्ति, सुकुल में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ और विपाक का आख्यान किया गया है। वहां दस दुःखविपाक अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। और दस सुखविपाक हैं। यह अंग की दृष्टि से नवमां अंग है। इसमें एक यह अंग की दृष्टि से ग्यारहवां अंग है। इसके दो श्रतस्कन्ध, तीन वर्ग, तीन उद्देशनकाल, तीन समूद्देशन- श्रुतस्कंध, बीस अध्ययन, बीस उद्देशनकाल, बीस समूद्देशनकाल तथा पद-प्रमाण से संख्येय हजार पद हैं। काल तथा पद-प्रमाण से संख्येय हजार पद हैं। पदग्गं छातालीसं लक्खा अट्ठ य सहस्सा, संखेज्जाणि सुत्तपदग्गं एगा पदकोडी चुलसीति च लक्खा बत्तीसं वा पदसहस्साणि । (नन्दीचू पृ ६९) च सहस्सा पदग्गेणं, संखेज्जाणि वा पदसहस्साई सूत्रपदों का परिमाण छियालीस लाख आठ हजार पदग्गेणं । (नन्दीच पृ७१) है। सूत्रालापकपदों का परिमाण संख्येय हजार है। __ सूत्रपदों का परिमाण एक करोड़ चौरासी लाख प्रश्नव्याकरण बत्तीस हजार है। सूत्रालापकपदों का परिमाण संख्येय "पण्हावागरणेसु णं अठ्ठत्तरं पसिणसयं, अठ्ठत्तरं हजार है। अपसिणसयं, अठ्ठत्तरं पसिणापसिणसयं, अण्णे य : ३. ग्यारह अंगों का निर्वृहण विचित्ता दिव्वा विज्जाइसया, नागसूवण्णेहिं सद्धि दिव्वा जइवि य भूतावाए सव्वस्स वओमयस्स ओयारो । संवाया आधविज्जति ।... ____ से णं अंगट्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणया निज्जूहणा तहावि हु दुम्मेहे पप्प इत्थी य ॥ (विभा ५५१) लीसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं यद्यपि भूतवाद-दृष्टिवाद में समस्त वाङमय का समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं" । अवतरण हो जाता है, फिर भी मन्दबुद्धि उपासक और (नन्दी ९०) स्त्रियों पर अनुग्रह कर शेष श्रुत-- ग्यारह अंगों का प्रश्नव्याकरण में एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ आठ नि!हण किया गया है। अप्रश्न, एक सौ आठ प्रश्न-अप्रश्न, अन्य विचित्र और दिव्य विद्यातिशय तथा नाग और सुवर्ण देवों के साथ हुए । ४. अंगप्रविष्ट ही द्वादशांग दिव्य संवादों का आख्यान किया गया है। श्रुतरूपस्य परमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि द्वादशाङ्गानि यह अंग की दृष्टि से दसवां अंग है। इसमें एक आचाराङ्गादीनि यस्मिन् तत् द्वादशाङ्गम। श्रुतस्कंध, पैंतालीस अध्ययन, पैंतालीस उद्देशनकाल, (नन्दीमत् प १९३) पंतालीस समुद्देशनकाल तथा पद-प्रमाण से संख्येय हजार श्रुतपुरुष के अंगस्थानीय आचारांग आदि बारह अंग हैं । यही द्वादशांगी है। __पदग्गं बाणउति लक्खा सोलस य सहस्सा पदग्गेणं, ५. द्वादशांग ही गणिपिटक संखेज्जाणि वा पदसहस्साणि । (नन्दीचू पृ७०) गणी-आचार्यस्तस्य पिटकमिव पिटकं, सर्वस्वमित्यर्थः सूत्रपदों का परिमाण बानवे लाख सोलह हजार है। गणिपिटकम् । अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनोऽप्यस्ति Jain Education International www.jainelibrary.org | For Private & Personal Use Only
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy