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________________ ज्ञातधर्मकथा एक की वृद्धि से दस स्थानों तक विभक्त भावों का प्ररूपण किया गया है । यह अंग की दृष्टि से तीसरा अंग है । इसके एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशनकाल, इक्कीस समुद्देशनकाल हैं । पदप्रमाण से इसके बहत्तर हजार पद हैं। समवायांग समवाए णं जीवा समासिज्जंति, अजीवा समासिज्जंति, जीवाजीवा समासिज्जति । ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिज्जइ, ससमय - परसमए समासिज्जइ । लोए समासिज्जइ, अलोए समासिज्जइ, लोयालोए समासिज्जइ । समवाए णं एगाइयाणं एगुत्तरियाणं ठाणसयविवढियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जइ । दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिज्जइ । ... सेणं अंगट्टयाए चउत्थे अंगे एगे सुयक्खंधे, एगे अभयणे, एगे उद्देसणकाले, एगे समुद्देसणकाले, एगे चोयाले पयसयसहस्से पयग्गेणं... | ( नन्दी ८४ ) समवाय में जीवों की, अजीवों की तथा जीवअजीव - दोनों की सूचना दी गई है । स्वसमय की, परसमय की तथा स्वसमय परसमय- दोनों की सूचना दी गई है। लोक की, अलोक की तथा लोक अलोकदोनों की सूचना दी गई है । इसमें पदार्थों की एक, दो, तीन, चार आदि से लेकर सौ की संख्या तक एक-एक के परिमाण से वृद्धिmataरिका परिवृद्धि का प्रतिपादन किया गया है । इसमें द्वादशांग गणिपिटक का पल्लव परिमाण बतलाया गया है। यह अंग की दृष्टि से चौथा अंग है । इसमें एक अध्ययन, एक श्रुतस्कन्ध, एक उद्देशनकाल, एक समुद्देशनकाल तथा पदप्रमाण से एक लाख चौवालीस हजार पद हैं । व्याख्याप्रज्ञप्ति .....वियाहे णं जीवा विआहिज्जंति, अजीवा विआहिज्जति, जीवाजीवा विआहिज्जेति । ससमए विहिज्जति, परसमए विहिज्जति, ससमय - परसमए विहिज्जति । लोए विआहिज्जति, अलोए विआहिज्जति, लोयालोए विहिज्जति । से णं अंगट्टयाए पंचमे अंगे एगे सुयक्बंधे, एगे साइरेगे अज्झयणसए, दस उद्देसगसहस्साई, दस समुद्देसग - सहस्साइं, छत्तीसं वागरणसहस्साई, दो लक्खा अट्ठासी पयसहस्साइं पयग्गेणं... । ( नन्दी ८५ ) Jain Education International अंगप्रविष्ट व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीव, अजीव तथा जीव-अजीवदोनों की व्याख्या की गई है । स्वसमय, परसमय तथा स्वसमय परसमय -- दोनों की व्याख्या की गई है। लोक, अलोक तथा लोक- अलोक दोनों की व्याख्या की गई है । यह अंग की दृष्टि से पांचवां अंग है । इसके एक श्रुतस्कन्ध, कुछ अधिक सौ अध्ययन, दस हजार उद्देशक, दस हजार समुद्देशक, छत्तीस हजार व्याकरण तथा पदप्रमाण से दो लाख अठासी हजार पद हैं । ज्ञातधर्मकथा ''''नायाधम्मकहासु णं नायाणं नगराई, उज्जाणाई, चेयाई, वणसंडाई, समोसरणाइं, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय-परलोइया इड्ढि - विसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वज्जाओ, परिआया, सुपरिग्गहा, तोवहाणाई, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाईओ, पुणबोहिलाभा, अंतकिरियाओ य आघविज्जंति । दस धम्मकहाणं वग्गा । तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई । एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाई । एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइओवक्खाइयासयाइं - एवमेव सपुब्वावरेणं aagri heroinोडीओ हवंति त्ति मक्खायं । .... सेणं अंगट्टयाए छट्ठे अंगे, दो सुयक्खंधा, एगूणतीसं अज्झयणा, एगूणतीसं उद्देसणकाला, एगूणतीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसहस्साइं पयग्गेणं । ( नन्दी ८६) ज्ञातधर्मकथा में ज्ञातों (दृष्टान्तभूत व्यक्तियों) के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक - परलोक की ऋद्धि-विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षापर्याय का काल, श्रुत-ग्रहण, तप-उपधान, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, प्रायोपगमन अनशन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है । धर्मकथा के दस वर्ग हैं। प्रत्येक धर्मकथा में पांचपांच सौ आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका में पांचपांच सौ उप-आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक उप-आख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिक - उपाख्यायिकाएं हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें साढे तीन करोड़ आख्यायिकाएं हैं । यह अंग की दृष्टि से छठा अंग है। इसके दो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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