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________________ अन्तिम दसपूर्वी ४२९ पूर्व ही होंगे। परन्तु छह प्रकार से तरतमता है, इसलिए अवहृत किया जाये तो अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त प्रज्ञापनीय भावों का अनन्तवां भाग ही श्रुतनिबद्ध है। अवसपिणी में भी उनका अवहार नहीं हो सकता, इसे वे छह स्थान ये हैं भावतः अक्षीण कहा जाता है। न्यून अधिक १५. अवसर्पिणी काल में पूर्वधरों का क्रम १. अनन्तभाग हीन १. अनन्तभाग अधिक ____ अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्दशपूर्व्यनन्तरं दशपूर्वधरा एव २. असंख्येयभाग हीन २. असंख्येयभाग अधिक ३ संख्येयभाग हीन ३. संख्येयभाग अधिक संजाता न त्रयोदशपूर्वधरा द्वादशपूर्वधरा एकादशपूर्वधरा वा । ४. संख्येयगुण हीन ४. संख्येयगुण अधिक (ओनिवृ प ३) ५. असंख्येयगुण हीन ५. असंख्येयगुण अधिक इस अवसर्पिणी कालखंड में चतुर्दशपूर्वी हुए हैं, ६. अनन्तगुण हीन ६. अनन्तगुण अधिक उनके पश्चात् दशपूर्वी ही हुए, किंतु तेरहपूर्वी, बारहपूर्वी उक्कोससुयन्नाणी वि जाणमाणो वि तेऽभिलप्पे वि। या ग्यारहपूर्वी नहीं हुए। न तरइ सव्वे वोत्तु न पहुप्पइ जेण कालो से ॥ १६. चौदह पूर्वो की स्मृति की भजना तस्योत्कृष्ट श्रुतज्ञानिनो वदतः कालो न प्रभवति न चोद्दसपुव्वी मणुओ देवत्ते तं न संभरइ सव्वं । पूर्यते, आयुषः परिमितत्वात् वाचश्च क्रमवर्तित्वात् । देसम्मि होइ भयणा सट्टाणभवे वि भयणा उ । (विभा ४५२ मवृ पृ २१४) (विभा ५३९) __एक चतुर्दशपूर्वी, जो उत्कृष्ट श्रुतज्ञानलब्धि से । चतुर्दशपूर्वी को देवलोक में उत्पन्न होने पर सारे श्रुत सम्पन्न है, सब भावों को जानता है, फिर भी वह सब की स्मृति नहीं रहती। आंशिक स्मृति रह भी सकती है, प्रज्ञापनीय (अभिलाप्य) भावों का पूर्णतया प्रतिपादन नहीं भी रहती। वर्तमान जन्म में भी भजना है। करने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि आयूष्य परिमित और श्रुतज्ञान के नाश के कारण वचन क्रमवर्ती होने के कारण अनन्त भावों को व्यक्त करने जितना समय नहीं रहता। मिच्छ-भवंतर-केवल-गेलन्न पमायमाइण नासो ।.... (विभा ५४०) १४. अन्तर्मुहूर्त में चौदहपूर्वो की अनुप्रेक्षा श्रुत-नाश के ये कारण हैंमहापाणं किर जदा अतिगतो होति ताहे उप्पण्णे ० मिथ्यात्व कज्जे अन्तोमुहुत्तेण चोद्दसवि पुव्वाणि अणुप्पेहेज्जंति, ० भवान्तर-गमन उक्कइओवइयाणि करेति । (आव २ पृ १८७) ० केवलज्ञान की प्राप्ति __ महाप्राण (महापान) ध्यान की साधना सम्पन्न होने ___० रुग्ण शरीर पर चतुर्दशपूर्वी प्रयोजन उपस्थित होने पर अन्तर्मुहूर्त में ० प्रमाद आदि । चौदह ही पूर्वो की अनुप्रेक्षा--पर्यालोचना कर लेता है, । १७. अन्तिम दसपूर्वी अनुक्रम-व्युत्क्रम से उनका परावर्तन कर लेता है। ___चोदसपुव्वधरस्सागमोवउत्तस्स अन्तमुत्तमेत्तोवयोग अज्जवइरा उवउत्ता--"मतेहितो वोच्छिज्जिहिति काले अत्थोवलंभोवयोगपज्जवा जे ते समयावहारेण दसमपुव्वं । "तमि य भगवंते अद्धनारायसंघयणं दस अणंताहिवि उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि णोवहिज्जति ते पुव्वाणि य वोच्छिण्णा। (आवहावृ १ पृ २०२, २०३) अतो भणितं आगमतो भावअझीणं । (अनुच १८८) आर्य वज्र (वीरनिर्वाण की छठी शती) के पश्चात चतुर्दश पूर्वविद् मुनि, जो आगम ग्रन्थों के विषय में विद्यानुप्रवाद नामक दशवां पूर्व तथा अर्धनाराच संहनन एकाग्रचित्त है, वह अन्तर्महर्त मात्र में असीम पर्यायों को -ये दोनों विच्छिन्न हो गये। जान लेता है, एक-एक पर्याय को एक-एक समय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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