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________________ परीषह त्थानासनादिसम्पादनं यद्वा सकलैवाभ्युत्थानाभिवादनदानादिरूपा प्रतिपत्तिरिह सत्कारस्तेन पुरस्करणं सत्कारपुरस्कार: । ( उशावृप ८३ ) अतिथि की वस्त्रदान आदि से पूजा करना सत्कार है और अभ्युत्थान करना, आसन देना आदि पुरस्कार है । अथवा अभ्युत्थान, अभिवादन आदि सारी क्रियाएं सत्कार हैं और इनके द्वारा किसी की अगवानी करना पुरस्कार है । प्रज्ञा परीषह से नूणं मए पुव्वं, कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्ठो केणइ कण्हुई || अह पच्छा उइज्जति, कम्माणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं, नच्चा कम्म- विवागयं ॥ ( उ २ ४०, ४१ ) निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञानरूप फल देने वाले कर्म किए हैं। उन्हीं के कारण मैं किसी के कुछ पूछे जाने पर भी कुछ नहीं जानता - उत्तर देना नहीं जानता । 'पहले किए हुए अज्ञानरूप फल देने वाले कर्म पकने के पश्चात् उदय में आते हैं'- इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि आत्मा को आश्वासन दे 1 अज्ञान परीषह निरट्ठगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो । जो सक्ख नाभिजाणामि, धम्मं कल्लाण पावगं ॥ तवोवहाणमादाय, पडिमं पडिवज्जओ । एवं पि विहरओ मे छउमं न नियट्टई ॥ ४१० Jain Education International ( उ २।४२, ४३) मैं मैथुन से निवृत्त हुआ, इन्द्रिय और मन का मैंने संवरण किया यह सब निरर्थक है । क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी यह मैं साक्षात् नहीं जानता । मैं तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूं, प्रतिमा का पालन करता हूं इस प्रकार विशेष चर्या से विहरण करने पर भी मेरा छद्म ( ज्ञान का आवरण ) निर्वार्तित नहीं हो रहा है मुनि ऐसा चिन्तन न करे । ( प्रज्ञा परीषह का संबंध श्रुतज्ञान से और अज्ञान परीषह का संबंध अवधिज्ञान आदि अतीन्द्रिय ज्ञान से है ।) दर्शन परीषह नथ नूणं परे लोए, इड्ढी वावि तवसिणो । अदुवा वंचिओ मित्ति, इइ भिक्खू न चितए || अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सई । मुसं ते एवमाहंसु, ss भिक्खू न चितए || ( उ २।४४, ४५) निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि भी नहीं है, अथवा मैं ठगा गया हूं - भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे । जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे ऐसा जो कहते हैं, वे झूठ बोलते हैं भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे । ४. परीषह और कर्मविपाक पन्नान्नाणपरिसहा णाणावरणंमि हुति दुन्नेए । इक्को य अंतराए अलाहपरीसहो होइ ॥ अरई अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अक्कोसे । सक्कारपुरक्कारे चरितमोहंम सत्ते ॥ अरईइ दुगंछाए पुंवेय भयस्स चेव माणस्स | कोहस् य लोहस्स य उदएण परीसहा सत्त ॥ दंसणमोहे दंसणपरीसहो नियमसो भवे इक्को । सेसा परीसहा खलु इक्कारस वेयणिज्जंमि ॥ ( उनि ७४-७७ ) परीषह १. प्रज्ञा २. अज्ञान ३. अलाभ ४. अरति ५. अचेल ६. स्त्री ७. निषद्या ८. याचना ९. आक्रोश परीषह और कर्मविपाक १०. सत्कार पुरस्कार ११. दर्शन १२. क्षुधा १३. पिपासा १४. शीत १५. उष्ण For Private & Personal Use Only कर्म का विपाक ज्ञानावरणीय "" अन्तराय अरति मोहनीय ( नोकषाय ) जुगुप्सा मोहनीय ( नोकषाय ) पुरुषवेद मोहनीय ( नोकषाय ) भय मोहनीय ( नोकषाय ) मन मोहनीय ( कषाय ) क्रोध मोहनीय ( कषाय ) लोभ मोहनीय ( कषाय ) दर्शन मोहनीय वेदनीय 11 11 23 www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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