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________________ निह्नव ३९२ तिष्यगुप्त और जीवप्रादेशिकवाद अज्ज! संघाडी दड्ढा, ताहे सो भणति-तुब्भे चेव आयप्पवायपुव्वं अहिज्जमाणस्स तीसगृत्तस्स । पण्णवेह जथा-डज्झमाणे अदड्ढे, केण तुब्भं संघाडी नयमयमयाणमाणस्स दिट्ठिमोहो समुप्पण्णो । दड्ढा ? एत्थ सा संबुद्धा, तहत्ति पडिसुणेति । इच्छामो एगादओ पएसा नो जीवो नो पएसहीणो वि । अज्ज ! सम्म पडिचोदणा। ताहे सा गंतूण जमालि जं तो स जेण पुण्णो स एव जीवो पएसो ति ॥ पण्णवेति । सो जाहे न गेण्हति ताहे गता सहस्सपरिवारा गुरुणाऽभिहिओ जइ ते पढमपएसो न संमओ जीवो । सामि उवसंपज्जित्ताणं विहरति । तो तप्परिणामो च्चिय जीवो कहमंतिमपएसो ।। ......"तते णं से जमाली "बहूहिं असब्भावुब्भाव- तंतू पडोवयारी न समत्तपडो य समुदिया ते उ । णाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं सव्वे समत्तपडओ सव्वपएसा तहा जीवो । च वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियायं इय पण्णविओ जाहे न पवज्जइ सो को तओ बज्झो । पाउणति, बहूहिं छट्ठट्ठमादीहिं अप्पाणं भावेति...."तस्स ततो आमलकप्पाए मित्तसिरिणा सुहोवायं ।। ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा भक्खण-पाण-वंजण-वत्थं तावयवलाभिओ भणइ । लंतए कप्पे तेरससागरोवमद्वितिकेसु देवेसु देवत्ताए सावय ! विधम्मिया म्हे कीस त्ति तओ भणइ सड्ढो।। उववण्णे। (आवच १ पृ ४१८,४१९) नणु तुझं सिद्धंतो पज्जतावयवमित्तओऽवयवी । साध्वी प्रियदर्शना कुंभकार ढंक के घर ठहरी हुई जइ सच्चमिणं तो का विहम्मणा मिच्छमिहरा भे॥ थी। वह जमाली के दर्शनार्थ आई। जमाली ने उसे सारी इय चोइय संबुद्धो खामियपडिलाभिओ पुणो विहिणा । बात कही। उसने पूर्व अनुराग के कारण जमाली की गंतुं गुरुपायमूलं ससीसपरिसो पडिक्कतो॥ बात मान ली। उसने कुंभकार को भी इससे अवगत कराया। प्रियदर्शना उन्मार्ग में प्रस्थित हो गई है यह __ (विभा २३३३-२३३७, २३४४,२३४८, २३५०, २३५५) ज्ञात होने पर कुंभकार ने स्पष्ट कहा-मैं इस सिद्धांत भगवान महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १६ वर्ष का मर्म नहीं समझ सका । पश्चात् ऋषभपुर में जीवप्रादेशिकवाद की उत्पत्ति हुई। एक दिन प्रियदर्शना स्वाध्याय पौरुषी कर रही थी। ढंक ने एक अंगारा उस पर फेंका, जिससे उसकी साड़ी राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में चतुर्दश पूर्वो के का एक कोना जल गया। उसने कहा-ढंक ! तुमने धारक आचार्य वसु का पदार्पण हुआ। उनके शिष्य का मेरी साड़ी जला दी है। तब ढंक ने कहा-साड़ी जली नाम तिष्यगुप्त था। गुरु तिष्यगुप्त को आत्मप्रवादपूर्व का कहां है, जल रही है। वह सम्बुद्ध हो गई। जमाली को अध्ययन करा रहे थे। नयवाद का प्रसंग चल रहा था। तिष्यगुप्त को समझ में नहीं आया तब उसके दृष्टिसमझाने गई। वह नहीं समझा । तब वह हजार साध्वीपरिवार के साथ भगवान की शरण में चली गई। विपर्यास उत्पन्न हो गया। जमालि असत्य प्ररूपणा तथा मिथ्या अभिनिवेश तिष्यगुप्त ने कहा-जब जीव एक प्रदेश नहीं, दो, के कारण स्वयं को तथा दूसरों को शंकित तथा भ्रमित तीन यावत् संख्येय प्रदेश जीव नहीं है, एक प्रदेश न्यून करने लगा। उसने अनेक वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का को भी जीव नहीं कहा जा सकता, तब जिस प्रदेश से पालन किया और विभिन्न प्रकार से तप तपा। किन्त वह पूर्ण होता है, वही जीव है। अपने दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही गुरु ने कहा-जब प्रथम प्रदेश जीव नहीं है, तब मृत्यु को प्राप्त होकर वह लान्तक देवलोक में तेरह अन्तिम प्रदेश जीव कैसे होगा ? सागरोपम की स्थिति वाला देव बना। ___एक तन्तु समस्त पट नहीं होता किन्तु वे सारे तन्तु ३. तिष्यगुप्त और जीवप्रादेशिकवाद मिलकर समस्त पट का कथन प्राप्त करते हैं; वैसे ही सोलस वासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्स। एक प्रदेश जीव नहीं, किन्तु सारे प्रदेश समुदित रूप से ही जीवपएसियदिट्ठी तो उसभपुरे समुप्पण्णा ॥ जीव हैं। रायगिहे गुणसिलए वसु चउदसपुग्वि तीसगुत्ते य..। गुरु ने उसे समझाया । उसने स्वीकार नहीं किया तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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