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________________ नय है । यह प्रमाण की प्रवृत्ति के पश्चात् होने वाला परामर्श है । अनेकधर्मकं वस्त्ववधारणपूर्वकमेकेन नित्यत्वाद्यन्यतमेन धर्मेण प्रतिपाद्यस्य बुद्धि नीयते प्राप्यते येनाभिप्रायविशेषेण स ज्ञातुरभिप्रायविशेषो नयः । ( आवमवृप ३६९ ) वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। उसके विवक्षित धर्म का अवधारण करने वाला ज्ञाता का अभिप्रायविशेष नय कहलाता 1 दिगम्बरी त्वियं प्रमाणनयपरिभाषा - सम्पूर्ण वस्तुकथनं प्रमाणवाक्यं यथा स्याज्जीवः स्याद्धर्मास्तिकाय इत्यादि, वस्त्वेकदेशकथनं नयवादः, तत्र यो नाम नयो नयान्तरसापेक्षः स नयः इति वा सुनय इति वोच्यते, यस्तु नयान्तरनिरपेक्षः स दुर्नयो नयाभास इति । ( आवमवृप ३७० ) दिगम्बर मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण वस्तु का प्रतिपादन करने वाला प्रमाणवाक्य कहलाता है, जैसेस्यात् जीव है, स्यात् धर्मास्तिकाय है । वस्तु के एक अंश का प्रतिपादन करने वाला कथन नयवाद कहलाता है । जो नय दूसरे नय की अपेक्षा रखता वह सुनय है और जो नय दूसरे नय की अपेक्षा नहीं रखता, वह दुर्नय अथवा नयाभास है । ३. सात नय सत्त मूलनया पण्णत्ता, तं जहा — नेगमे संग बवहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूढ एवंभू । ( अनु ७१५) नय सात हैं १. नैगम २. संग्रह ३. व्यवहार ४. ऋजुसूत्र निगम नय ३७२ हि माहि मिणइ त्ति नेगमस्स य निरुत्ती । ..... ( अनु ७१५/१ ) सामन्नोभय विसेसनाणाई । गमो णओ णेगमाणो त्ति ॥ (विभा २१८६) जो अनेक प्रमाणों से वस्तु का ज्ञान करता है, वह निगम है । गाई माणाई जं तेहि मिणइ तो ५. शब्द ६. समभिरूड ७. एवंभूत । Jain Education International सामान्य, विशेष और उभयरूप ज्ञानों से ग्रहण करना निगम नय है । संग्रह नय संगहि पिडित्थं, संगहवयणं समासओ बेंति । ..... ( अनु ७१५।२) जो संग्रहीत और पिंडित अर्थ को संक्षेप में बताता है, वह संग्रह नय है । व्यवहार नय '''''वच्चइ विणिच्छियत्थं, ववहारो सव्वदव्वे ॥ ( अनु ७१५।२) ....ववहारपरो व जओ विसेसओ तेण ववहारो ॥ ( विभा २२१२ ) अर्थ का अनु जो सब द्रव्यों के विनिश्चित - विशेष गमन करता है, वह व्यवहार नय है । संग्रह और व्यवहार नय में अन्तर जं सामन्नग्गाही संगिण्हइ तेण संगहो निययं । जेण विसेसग्गाही ववहारो तो विसेसेइ ॥ ( विभा ७६ ) संग्रहनय सामान्यग्राही है । वह अभेद को ग्रहण करता है । व्यवहारनय विशेषग्राही है । वह भेद को ग्रहण करता है । ऋजुसूत्र नय तम्हा निययं संपकालीनं लिंग वयणभिन्नं पि । नामाभे विहियं पडिवज्जइ वत्थुमुज्जुसुओ ॥ ( विभा २२२६) पर भी जो वस्तु के वह ऋजुसूत्र है । और नाम आदि लिंग और वचन का भेद होने वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है, ऋजुसूत्र तीनों लिंगों, दोनों वचनों चारों निक्षेपों को मान्य करता है । शब्द नय शब्द नय धणिभेयाओ भेओ त्थी पुलिंगाभिहाणवच्चाणं । पड - कुंभाणं व जओ तेणाभिन्नत्यमिट्ठ तं ॥ जिन शब्दों के लिंग भिन्न हैं, एकत्व नहीं है । जैसे- पट और For Private & Personal Use Only उन कुम्भ ( विभा २२३४ ) शब्दों में भेद है, शब्द भिन्न हैं; www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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