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________________ वनस्पतिकाय की परिभाषा २५५ जीवनिकाय पूरितो अचित्तो होइ तदुवरि सो चेव तइए पहरे सचित्तो अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त है। होइ। आयुस्थिति लुक्खकालोऽवि तिविहो-जहन्नलूक्खो मज्झिम तिण्णेव सहस्साइं, वासाणक्कोसिया भवे। लुक्खो, उक्कोसलुक्खो य । तत्थ जहन्नलुक्खे काले वत्थी आउट्टिई वाऊणं, अंतोमुहुत्तं जहनिया ।। वाउणाऽऽपूरिओ एगदिवसं जाव अचित्तो होइ, तदुरि (उ ३६।१२२) सो चेव बिइयदिवसे मिस्सो होइ, सो चेव ततिए दिवसे वायुकाय की आयुस्थिति जघन्यतः अन्तर्महर्त और सचित्तो होइ । उक्कोसलूक्खे काले दिवसतिगं जाव उत्कृष्टतः तीन हजार वर्षों की है। अचित्तो होइ, तदुरि सो चेव चउत्थे दिवसे मीसो होइ, कास्थिति तरि सो चेव पंचमे दिवसे सचित्तो होइ । असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । (ओनिवृ पृ १३४) कायट्टिई वाऊणं, तं कायं तु अमुंचओ। वायुकाय के चार प्रकार हैं (उ ३६।१२३) १. नैश्चयिक सचित्त-वलय के आकार में स्थित वायुकाय की कायस्थिति (निरन्तर उसी काय में घनवात और तनुवात, अतिहिमपात और अतिदुर्दिन जन्म लेते रहने की काल-मर्यादा) जघन्यतः अन्तमहत (मेघकृत अन्धकार) में होने वाली वायू । और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है। २. व्यावहारिक सचित्त-दुर्दिन रहित पूर्व आदि दिशाओं की वायु । अंतरकाल ३. अचित्त वायु-कर्दम आदि पर चलने से उठने अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । वाली वायु। विजढंमि सए काए, वाउजीवाण अंतरं ।। ४. मिश्र वायु-दति (मशक) में भरी अचित्त वायू वायुकाय का अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहर्त और नदी में दो सौ हाथ की दूरी पर मिश्र हो जाती उत्कृष्टतः अनन्त काल का है। क्षेत्र काल दो तरह का होता है-स्निग्ध काल और सुहमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा । रूक्ष काल । स्निग्ध काल के तीन रूप हैं-उत्कृष्ट, (उ ३६।१२०) मध्यम और जघन्य । उत्कृष्ट स्निग्ध काल में वायु से सूक्ष्म वायुकायिक जीव समूचे लोक में और आपूरित मशक एक प्रहरपर्यंत अचित्त रहती है। तत् बादर वायुका यिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। पश्चात् वही तीसरे प्रहर में पुन: सचित्त हो जाती है। रूक्ष काल के भी तीन रूप हैं --जघन्य, मध्यम ७. वनस्पतिकाय की परिभाषा और उत्कृष्ट । जघन्य रूक्ष काल में वाय से आपरित वनस्पतिः - लतादिरूपः प्रतीतः, स एव कायःमशक एक दिन तक अचित्त रहती है, तत्पश्चात दूसरे शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः । (दहाव प १३८) दिन मिश्र और तीसरे दिन सचित्त हो जाती है। लता आदि वनस्पति ही जिनका काय-शरीर उत्कृष्ट रूक्ष काल में मशक की वायु तीन दिन पर्यंत होता है, उन जीवों को वनस्पतिकाय कहते हैं। अचित्त रहती है, वही चौथे दिन मिश्र और पांचवें दिन जीवत्वसिद्धि सचित्त हो जाती है। जम्म-जरा-जीवण-मरण-रोहणा-हार-दोहला-मयओ। स्थिति रोग-तिगिच्छाईहि य नारिव्व सचेयणा तरवो।। संतइं पप्पणाईया, अपज्जवसिया वि य । (विभा १७५३) ठिई पड़च्च साईया, सपज्जवसिया वि य ।। वनस्पतिजीव है । उसकी सजीवता के चिह्न हैं (उ ३६।१२) जन्म, वृद्धत्व, जीवन, मृत्यु, व्रणरोहण, आहार, दोहद, प्रवाह की अपेक्षा से वायूकायिक जीव अनादि- रोग, रोग-चिकित्सा आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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