SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वाधिक तेजस्काय का" २८३ जीवनिकाय जीवत्वसिद्धि . अग्निकाय के तीन प्रकार हैं......"अनलो आहाराओ विद्धि-विगारोवलम्भाओ॥ १. नैश्चयिक सचित्त-इष्टका-पाक आदि के बहमध्य(विभा १७५८) भाग की विद्युत् आदि । जैसे मनुष्य में आहार आदि से उपचय और अपचय २. व्यावहारिक सचित्त-अंगारे आदि । दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही अग्नि में भी ईंधन से वृद्धि ३. मिश्र–मुर्मुर आदि। और हानि दिखाई देते हैं, इसलिए वह मनुष्य के समान सर्वाधिक तेजस्काय का उत्पत्तिकाल सजीव है। __ यदा सर्वासु कर्मभूमिषु निर्व्याघातमग्निकायसमातेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ रम्भकाः सर्वबहवो मनुष्याः । ते च प्रायोऽजितस्वामि सत्थपरिणएणं। (द ४।सूत्र ६) तीर्थकरकाले प्राप्यन्ते, यदा चोत्कृष्टपदवत्तिनः सूक्ष्माशस्त्र-परिणति से पूर्व तेजस चित्तवान (सजीव) नलजीवाः तदा सर्वबह्वग्निजीवाः । कहा गया है । वह अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (नन्दीमवृ प ९२) (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व) वाला है। अर्हत् अजित के तीर्थकाल में सब कर्मभूमियों में अग्नि का समारम्भ करने वाले मनुष्य सबसे अधिक थे। प्रकार जब सूक्ष्म अग्निजीव उत्कृष्ट होते हैं, तब सर्वाधिक दुविहा तेउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा । अग्निजीव होते हैं। पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥ स्थिति (उ ३६।१०८) संतई पप्पणाईया, अपज्जवसिया वि य। तेजस्कायिक जीवों के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म और ठिई पड़च्च साईया, सपज्जवसिया वि य ।। बादर। उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त-ये दो-दो भेद होते हैं। (उ २३।११२) प्रवाह की अपेक्षा तेजस्कायिक जीव अनादि-अनन्त बायरा जे उ पज्जत्ता, णेगहा ते वियाहिया । हैं और स्थिति की अपेक्षा सादिसांत हैं। इंगाले मुम्मुरे अगणी, अच्चि जाला तहेव य॥ आयुस्थिति उक्का विज्जू य बोद्धव्वा, णेगहा एवमायओ। तिण्णेव अहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया। एगविहमणाणत्ता, सुहुमा ते वियाहिया ॥ (उ ३६।१०९,११०) आउटिई तेऊणं, अंतोमहत्तं जहन्निया । बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीवों के अनेक भेद (उ ३६।११३) तेजस्कायिक जीवों की आयुस्थिति जघन्यतः अन्तहैं --अंगार, मुर्मुर, अग्नि, अचि, ज्वाला, उल्का, विद्युत् आदि । सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव एक ही प्रकार के होते मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन दिन-रात की है। हैं, उनमें नानात्व नहीं होता। कायस्थिति एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । ' संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥ कायट्टिई तेऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ (उ ३६।११६) (उ ३६।११४) ' वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से तेजस्काय की कायस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उनके हजारों भेद होते हैं। उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है । सचित्त-मिश्र अग्नि अन्तरकाल ... इट्टगपागाईणं बहुमज्झे विज्जुयाइ निच्छइओ। .. अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । ....इंगालाई इयरो मुम्मुरमाई य मिस्सो . उ॥ विजढंमि सए काए, तेउजीवाण अंतरं। (ओनि ३५८) (उ ३६।११५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy