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________________ अकाय की परिभाषा को उतारने के लिए सफेद मिट्टी तथा तलाई आदि के तल की मिट्टी का लेप किया जाता है । ' नमक का प्रयोग भोजन में किया जाता है । • गंधपाषाण (गंधरोहक ) खुजली से उत्पन्न वात का शमन करता है । ठाणनिसियट्टण उच्चाराईण चेव घुट्टगडगलगलेवो एमाइ पओयणं उस्सग्गो । बहुहा ॥ ( पिनि १५ ) • मुनि अचित्त भूमि पर कायोत्सर्ग, उपवेशन, शयन आदि करता है । • घुट्टक पाषाण से पात्र को घिसकर चिकना करता है । पृथ्वीका की स्थिति संतई पप्पणाईया, अपज्जवसिया विय । ठि पडुच्च साईया, सपज्जवसिया विय ॥ ( उ ३६ ७९ ) जीव अनादि प्रवाह की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सांत हैं । स्थिति बावीससहस्सा, वासाणुक्कोसिया भवे । आउठिई पुढवीणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। ( उ ३६ ८० ) पृथ्वीका की आयुस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः बाईस हजार वर्ष की है । आयु : जीवितं तस्य स्थिति:-- अवस्थानमायुः स्थितिः । ( उशावृ प ६९० ) Jain Education International प्राणी एक जन्म ( भव) में जितने काल तक अवस्थित रहता है, उस कालमर्यादा को आयुस्थिति या भवस्थिति कहा जाता है । २८१ कायस्थिति काये स्थितिः- ततोऽनुवर्त्तनेनावस्थानं कायस्थितिः । ( उशावृ प ६९० ) एक ही जीवनिकाय में निरन्तर जन्म ग्रहण करते रहने की काल मर्यादा को कार्यस्थिति कहा जाता है । जीवनिकाय असंखकाल मुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । कार्याठिई पुढवीणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ ( उ ३६८१) पृथ्वीका की काय स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है । अन्तरकाल जहन्नयं । अनंतकालमुक्कसं, अंतोमुहुत्तं विजढंमि सए काए, पुढवीजीवाण अंतरं ॥ ( उ ३६१८२) पृथ्वीका का अन्तर ( पृथ्वीकाय को छोड़कर पुनः पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने तक का काल ) जघन्यतः अन्तमुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है । क्षेत्र सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा । (उ३६।७८) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समूचे लोक में और बादर पृथ्वीकायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । ४. अप्काय की परिभाषा आपो- द्रवाः प्रतीता एव ता एव कायः शरीरं येषां तेऽकायाः । ( दहावृ प १३८ ) प्रवाहशील द्रव्य -- जल ही जिनका काय -- शरीर होता है, उन जीवों को अष्काय कहते हैं । जीवत्वसिद्धि भूमिक्खयसाभावियसंभवओ ददुरो व्व जलमुत्तं । अहवा मच्छो व सभाववोमसंभूयपायाओ || (विभा १७५७ ) भूमि को खोदने से पानी प्राप्त होता है, इसलिए पानी को भौम कहा जाता है । वह भूमि का सजातीय है । उसकी प्राप्ति स्वाभाविक । अतः वह मेंढक के समान सजीव है । अथवा मछली के समान बादलों से गिरने के कारण आकाश का पानी सजीव है । आऊ चित्तमं तमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्यपरिणएणं । (द ४ | सूत्र ५ ) चित्तवान् (सजीव ) और पृथक् सत्त्वों शस्त्र - परिणति से पूर्व जल कहा गया है । वह अनेक जीव (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व ) वाला है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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