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________________ चारित्र चारित्रिक स्थिरता विशुद्धयमान होता है । उपशांतमोह गुणस्थान से गिरते तेषां लाभः । क्षपकश्रेणौ तु क्षयादिति । सूक्ष्मसंप रायसमय वह संक्लिश्यमान होता है । यथाख्यातचारित्रे तूपशमश्रेणी कषायोपशमात्, क्षपकश्रेणी तु तत्क्षाल्लभ्येते । (विभामवृ पृ ४७४ ) सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि – ये तीनों चारित्र श्रेणी आरोहण से पूर्व कषाय के क्षयोपशम प्राप्त होते हैं । अनिवृत्ति गुणस्थान में उपशमश्रेणी की अपेक्षा कषाय के उपशम से और क्षायिकश्रेणी की अपेक्षा कषाय के क्षय से प्राप्त होते हैं । सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र उपशमश्रेणी की अपेक्षा कषाय के उपशम से तथा क्षायिकश्रेणी की अपेक्षा कषाय के क्ष से प्राप्त होते हैं । ७. यथाख्यात चारित्र अह सो जात्थे आङोऽभिविहीए कहियमक्खायं । चरण सामुदितं तमहक्खायं जहखायं ॥ ( विभा १२७९ ) afarerraषायं क्षपितोपशमितकषायावस्थाभावि । इह चोपशमितकषायावस्थायामकषायत्वं कषायकार्याभावात्, यथाख्यातम् अर्हत्कथितस्वरूपानतिक्रमवत् । ( उशावृप ५६८ ) जब क्रोध, मान, माया और लोभ सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्र - स्थिति को यथाख्यात चारित्र कहा जाता है । .२७० अर्हत् द्वारा प्रस्तुत चारित्र का जो स्वरूप प्ररूपित है उसका अतिक्रमण न करना यथाख्यात है । प्रकार अक्खायचरितगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पडिवाई य अपडिवाई य । ( अनु ५५३ ) यथाख्यात चारित्र के दो प्रकार हैं- प्रतिपाती (उपशम चारित्र) और अप्रतिपाती ( क्षायिक चारित्र ) । अकसायं अहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । ( उ २८|३३) छद्मस्थस्य उपशान्तक्षीणमोहाख्यगुणस्थानद्वयवर्त्तिनः । केवलिनः सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वयस्थायिनः । ( उशावृप ५६९ ) गुणस्थान के आधार पर इसके अधिकारी दो वर्गों में विभक्त हैं १. छद्मस्थ - उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती । २. केवली – सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती । ८. कषाय-विलय से चारित्र प्राप्ति खयओ वा समओ वा खओवसमओ व सुहुमा हक्खायाइं खयओ समओ तिण्णि लब्भन्ति । व नण्णत्तो ॥ ( विभा १२५७ ) सामायिकच्छेदोपस्थापनीय परिहारविशुद्धिकलक्षणान्याद्यानि त्रीणि चारित्राणि श्रेणिद्वयादन्यत्र कषायक्षयोपशमात् पूर्वप्रतिपन्नानि प्रतिपद्यमानानि च लभ्यन्ते, अनिवृत्तिबादरस्य पुनरुपशमश्रेणी तदुपशमात् पूर्वप्रतिपन्नानां Jain Education International चरितमोहखतोवसमे णाम बारसकसायोदयखये सदुवसमे य । संजलण चक्क अन्नत रदेसघातिफड्डगोदए णोकसायनवगस्स य यथासंभवोदये । ( आवचू १ पृ९७,९८ ) उदय प्राप्त द्वादश कषाय का क्षय तथा अनुदित कषाय का उपशम होने पर क्षयोपशम चारित्र प्राप्त होता है। इसमें संज्वलनचतुष्क के देशघाती स्पर्धकों का उदय तथा नोकषायनवक का यथासंभव उदय रहता है। न हुनवरिमहखाओवघाइणो सेसचरणदेसं पि । घाति ताणमुदए होइ जओ साइयारं तं ॥ ( विभा १२४८ ) संज्वलन कषाय केवल यथाख्यात का ही उपघाति नहीं है । वह शेष चारित्र का भी देशघाति है । उसके उदय से शेष चारित्र सातिचार हो जाते हैं । ६. चारित्रिक स्थिरता के आलम्बन सूत्र इह खलु भो ! पव्वइएणं, उप्पन्न दुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं, ओहाणुप्पेहिणा अगोहाइएणं चेव, हयरस्सि गयं कुस - पोयपडागाभूयाई इमाई अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडिले हियव्वाइं भवंति । तं जहा १. हं भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी । २. लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा । ३. भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा । ४. इमेय मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ । ५. ओमजणपुरक्कारे । ६. वंतस्स य पडियाइयणं । - ७. अहरगइवासोवसंपया । 5. दुल्लभे खलु भो ! गिहीणं धम्मे गिहिवासमज्भे वसंताणं । ९. आयंके से वहाय होइ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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