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________________ सर्प महानिधि २६१ असि रत्न विणासणं कुवलयदलसामलं च रयणिकरमंडलनिभं सत्तुजणकणकरतणडंडं नवमालियपुप्फसुरभिगंधि णाणामणिलतिकभत्तिचित्तं च पधोतमिसिमिसेंतं तिक्खधारं दिव्वं खग्गरयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो वंसरुक्खसिंगतिकालायस विपुललोहडंड कवरवइरभेदयं सव्वत्थ अपहितं किं पुण देहेसु जंगमाणं ? जाव पन्नासंगुलदी हो सोलस अंगुलाई विच्छिन्नो | अट्ठगुलसोणी को जेट्ठपमाणो असी भणितो ॥ (आवचू १ पृ १९६) दिव्य असि रत्न नीलकमल के समान श्यामल, चन्द्र के समान चमक वाला, नव मल्लिका के समान गंध वाला होता है। शत्रुओं का विनाशक, तीक्ष्ण धार वाला वह असि रत्न लोक में अनुपम होता है । इसकी मूठ स्वर्णरत्नों से मंडित होती है । उस पर मणिरत्नों से नाना चित्र निर्मित होते हैं । असि रत्न वंशवृक्ष, श्रृंग, अस्थि, हाथीदांत, लोहदंड और वज्र को भी भेद डालता वह पचास अंगुल लम्बा, सोलह अंगुल चौड़ा और आठ मोटा होता है । 1 दंड रत्न तं भवे दंडरयणं पंचलइयं वइरसारमतियं विणासणं सव्वसत्तुसेन्नाणं खंधावारे णरवइस्स गड्डुदरिविसमपब्भारगिरिपव्वताणं समीकरणं संतिकरणं सुभकरं रन्नो हिदइच्छित मणोरहपुरगं दिव्यमपहितं । तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवा रस्स कवाडे दंडरयणेण विहाडे । ( आवचू १ पृ १९२ ) दिव्य दण्ड रत्न अप्रतिहत, शांतिकारक, शुभकारक और चक्रवर्ती का मनोरथ पूर्ण करने वाला होता है । उसके पांच लताएं होती हैं । वज्र के सारभाग से निर्मित वह रत्न शत्रुसेना को नष्ट कर देता है तथा गड्ढों, गुफाओं और पर्वतों के विषम भागों को सम बना देता है । सेनापति तमिस्रा गुफा के दक्षिणी भाग के कपाटों कोदंड रत्न से ताड़ित कर खोलता है । एकेन्द्रिय रत्न सत्त एगिंदियरयणा तं जहा - चक्करयणं, छत्तरयणे, चम्मरयणे, दंडरयणे, असिरयणे, मणिरयणे, कागणिरयणे । (आव १२०३ ) Jain Education International चक्रवर्ती के एकेन्द्रिय रत्न सात हैं। ५. असि ६. मणि ७. काकणी १. चक्र २. छत्र ३. चर्म ४. दंड रत्नों की उत्पत्ति - भरहस्स णं रन्नो चक्करयणे छत्तरयणे दंडरयणे असिरयणे एते णं चत्तारि एगिदिययणा आयुधसालाए समुत्पन्ना | चम्मरयणे मणिरयणे कागणिरयणे णव य महाणिहीओ, एते णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा, सेणावतिरयणे गाहावतिरयणे, वड्ढतिरयणे पुरोहितग्यणे एते णं चत्तारि मणुरयणा विणीताए रायहाणीए समुप्पन्ना, आसरयणे हत्थिरयणे एते णं दुवे पंचेंदिपरयणा वेयड्ढगिरिपादमूले समुप्पण्णा, इत्थिरयणे उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए समुन्ने । ( आवचू १ पृ २०७ ) चक्र, छत्र, दंड और असि-ये चार एकेन्द्रिय रत्न में उत्पन्न होते हैं । आयुधशाला चर्म, मणि, काकणी तथा नव निधियां ये श्रीगृह में उत्पन्न होती हैं । सेनापति, गाथापति, वर्धकी और पुरोहित – ये चार मनुष्य रत्न विनीता राजधानी में उत्पन्न होते हैं । अश्व और हस्ति - ये दो पंचेन्द्रिय रत्न वैताढ्य पर्वत की तलहटी में उत्पन्न होते हैं । स्त्री रत्न उत्तरी विद्याधर श्रेणी में उत्पन्न होता है। नौ महानिधि सप्पे पंडुए पिंगलये सव्वरयण महापउमे । काले य महाकाले माणवग महाणिही संखे ॥ ( आवचू १ पृ२०२) चक्रवर्ती के नौ महानिधि होते हैं १. नैसर्प २. पांड़क ३. पिंगल ४. सर्व रत्न ५. महापद्म नैसर्प महानिधि चक्रवर्ती For Private & Personal Use Only ६. काल ७. महाकाल ८. माणवक ९. शंख सप्पंमि णिवेसा गामागरणगरपट्टणाणंच । दो मुहमsari खंधावा रावणगिहाणं ॥ ( आवचू १ पृ २०२ ) www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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