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________________ भिक्षाचर्या से... २५१ गोचरचर्या गांव या नगर में गोचरान के लिए निकला हुआ चल रहा हो और मार्ग में तिर्यक् संपातिम जीव छा रहे मुनि धीमे-धीमे अनुद्विग्न और अव्याक्षिप्त चित्त से हों तो भिक्षा के लिए न जाए। चले। निषिद्ध कल ___ आगे युगप्रमाण भूमि को देखता हुआ और बीज, पडिकटुकलं न पविसे, मामगं परिवज्जए । हरियाली, प्राणी, जल तथा सजीव मिट्टी को टालता हुआ अचियत्तकलं न पविसे, चियत्तं पविसे कुलं ।। चले। (द ५।१।१७) अणुन्नए नावणए, अप्पहिछे अणाउले । मुनि निंदित कुल में प्रवेश न करे। मामक-गृहइंदियाणि जहाभागं, दमइत्ता मुणी चरे॥ दवदवस्स न गच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे ।। स्वामी द्वारा प्रवेश निषिद्ध स्थान का परिवर्जन करे । प्रीतिकर कुल में प्रवेश करे। हसंतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया ।। (द ५।१।१३,१४) - पडिकुठें निन्दितं, तं दुविहं-इत्तिरियं आवकहियं च । इत्तिरियं मयगसूतगादि । आवकहितं चंडालादी। मुनि न ऊंचा मुंहकर, न झुककर, न हृष्ट होकर, न आकूल होकर, किंतु इन्द्रियों को अपने-अपने विषय के (दअचू पृ १०४) अनुसार दमन कर चले। प्रतिक्रुष्ट कुल का अर्थ है-निन्दित कुल । वह दो उच्च-नीच कुल में गोचरी गया हुआ मुनि दौड़ता हुआ न चले, बोलता और हंसता हुआ न चले । १. अल्पकालिक-वह कुल, जहां मृतक, सूतक आदि आलोयं थिग्गलं दारं, संधि दगभवणाणि य । २. यावत्कालिक-डोम, मातंग आदि कुल । चरंतो न विणिज्झाए, संकट्ठाणं विवज्जए । रन्नो गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाण य । ८. भिक्षाचर्या से उपाश्रय में प्रवेश-विधि संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवज्जए । पायपमज्जणनिसीहिआ य तिन्नि उ करे पवेसंमि । (द ५।१।१५,१६) अंजलि ठाणविसोही दंडग उवहिस्स निक्खेवो ॥ मुनि चलते समय आलोक, थिग्गल, द्वार, संधि तथा (ओनि ५०९) पानी-घर को न देखे । शंका उत्पन्न करने वाले स्थानों भिक्षाचर्या से लौटकर मूनि उपाश्रय से बाहर ही से बचता रहे। पैरों का प्रमार्जन करता है। राजा, गहपति, अन्तःपुर और आरक्षकों के उस प्रविष्ट होता हआ उपाश्रय के अग्रद्वार, मध्यभाग स्थान का मुनि दूर से ही वर्जन करे, जहां जाने से उन्हें और मूलद्वार पर तीन निषीधिका करता है। संक्लेश उत्पन्न हो। __'नमो खमासमणाणं' का उच्चारण कर बद्धांजलि तहेवच्चावया पाणा, भत्तट्टाए समागया । नमस्कार करता है। फिर उपधि आदि को रखने के लिए त-उज्जुयं न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे ॥ स्थान-विशोधन करता है । (द ५।२१७) कायोत्सर्ग नाना प्रकार के प्राणी भोजन के लिए एकत्रित हों, पुबुद्दिढे ठाणे ठाउं चउरंगुलंतरं काउं । उनके सम्मुख न जाए। उन्हें त्रास न देता हुआ यतना मुहपोत्ति उज्जुहत्थे वामंमि य पायपुंछणयं ॥ पूर्वक जाए। काउस्सग्गंमि ठिओ चिते समुयाणिए अईआरे । न चरेज्ज वासे वासंते, महियाए व पडतीए । जा निग्गमप्पवेसो तत्थ उ दोसे मणे कुज्जा । महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥ ते उ पडिसेवणाए अणुलोमा होति वियडणाए य । (द ५११८) (ओनि ५११-५१३) वर्षा बरस रही हो, कुहरा गिर रहा हो, महावात भिक्षा से लौटकर मुनि कायोत्सर्ग करता है। पैरों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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