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________________ गणधर • जीत - श्रुत की अव्यवच्छित्ति । ० जीत - मर्यादा का अनुपालन । • जीत - आचार-परम्परा का निर्वहन अर्थात् श्रुतरचना का आचार सभी गणधरों द्वारा आचीर्ण है । ६. गणधर : धर्मदेशना २३९ afarओ सीसगुणदीवणा पच्चओ उभओऽवि । सीसायरियकमोऽवि य गणहरकहणे गुणा होंति ॥ तित्थग पढमपोरुसीए धम्मं ताव कहेति जाव पढमपोरुसी-उग्घाडवेला .......उवर पोरुसीए उट्टिते तित्थकरे गोयमसामी अन्नो वा गणहरो बितियपोरुसीए धम्मं कहेति । ( आवनि ५८८ चू १ पृ३३२, ३३३ ) तीर्थंकर जब प्रथम पौरुषी की संपन्नता तक धर्मदेशना देकर उठ जाते हैं, तब दूसरी पौरुषी में गौतम गणधर अथवा अन्य गणधर धर्मोपदेश करते हैं । उनकी देशना के ये प्रयोजन हैं ० तीर्थंकर के शारीरिक श्रम का अपनयन । ० शिष्य के गुणों का उद्दीपन । ● तत्त्वनिरूपण की अविसंवादिता से श्रोतृ-गण में गुरुशिष्य के प्रति आस्था — विश्वास की उत्पत्ति । • आचार्य और शिष्य की शालीन परम्परा का संवहन | ७. गण और गणधर एक्कारस उ गणहरा जिणस्स वीरस्स सेसयाणं तु । जावइआ जस्स गणा तावइआ गणहरा तस्स ॥ ( आवनि २६९ ) जिस तीर्थंकर के जितने गण होते हैं, उतने ही गणधर होते हैं । किन्तु तीर्थंकर महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे । अकंपियअयलभातीणं एगो गणो । मेयज्जपभासाणं एगो गणो | एवं णव गणा होंति । ( आवचू १ पृ ३३७) गणधर अकंपित और अचल भ्राता- इन दोनों का एक गण था । गणधर मेतार्य और प्रभास- इन दोनों का एक गण था । ८. सुधर्मा और शिष्य परम्परा ..... तित्थं च सुहम्माओ णिरवच्चा गणहरा सेसा ॥ ( आवनि ५९५ ) वर्तमान तीर्थ में जो शिष्य-परम्परा है, वह गणधर आर्य सुधर्मा की है। शेष गणधर निरपत्य-शिष्य परम्परा से रहित हैं । Jain Education International गुणस्थान सामी जस्स जत्तिओ गणो तस्स तत्तियं अणुजाणति । आतीए सुहम्मं करेति, तस्स महल्लं आउयं, एत्तो तित्थं होहिति त्ति । (आवचू १ पृ ३३७) गणधर सुधर्मा दीर्घायु हैं, इनसे तीर्थं प्रवर्तित होगायह जानते हुए भगवान् महावीर ने सुधर्मा को संघ का दायित्व सौंपा। गणना -- संख्या प्रमाण का सातवां भेद | (द्र. संख्या) (द्र. काल ) गणिपिटक - द्वादशांगी, आचार्य का सर्वस्व । गणित - गणना | ( द्र. आगम ) गति - एक भव से दूसरे भव में गमन । जेणुवगहिओ वच्चइ भवंतरं जच्चिरेण कालेन । एसो खलु गइकाओ सतेयगं कम्मगसरीरं ॥ ( आवनि १४३५ ) चतसृष्वपि गतिषु नारकतिर्यग्नरामरलक्षणासु । ( आवहावृ २ पृ १८५ ) तेजस और कार्मण शरीर से युक्त जीव एक भव से दूसरे भव में जाता है, उसे गति कहते हैं। इस अन्तराल गति से जीव जहां जाकर उत्पन्न होता है, वह भी 'गति' शब्द से व्यवहृत होती है । वे गतियां चार हैं -नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव । (द्र. संबद्ध नाम ) गमित - सदृश पाठ वाला श्रुत । करना । (द्र. श्रुतज्ञान) गर्हा - गुरु साक्षी से अपने अकृत्य की निन्दा (द्र आलोचना ) गीत - दशांश लक्षणों से लक्षित स्वरसन्निवेश, पद, ताल एवं मार्ग-इन चार अंगों से युक्त गान । (द्र. स्वर मण्डल) गुणस्थान - कर्म विशोधि की मार्गणा । आध्यात्मिक विकासक्रम का सोपान । १. गुणस्थान के प्रकार २. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ३. सास्वादन सम्यग्दृष्टि * - सास्वादन सम्यक्त्व (द्र. सम्यक्त्व) ४. सम्यग - मिथ्यादृष्टि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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