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________________ गणधर भूयाइसंसयाओ, जीवाइस का कह त्ति ते बुद्धी । तं सव्वसुण्णसंकी, मन्नसि मायोवमं लोयं ॥ ( विभा १६९१ ) भूत आदि प्रत्यक्ष पदार्थों के विषय में भी जब तुम संदिग्ध हो तो फिर जीव आदि परोक्ष पदार्थों का ज्ञान तुम्हें कैसे होगा ? इसलिए तुम शून्यवाद को स्वीकार कर विश्व को इन्द्रजाल के समान मानते हो । मा कुरु वियत्त ! संसयमसइ न संसयसमुब्भवो जुत्तो । खकुसुम - खरसिंगेसु व, जुत्तो सो थाणु-पुरिरे ॥ ( विभा १६९७ ) व्यक्त ! तुम ऐसा संशय मत करो। पदार्थ का अस्तित्व नहीं है तो संशय उत्पन्न ही नहीं होगा । आकाशकुसुम और गधे के सींग के विषय में क्या कभी संशय होता है ? यह स्तंभ है या पुरुष ? ऐसा संशय हो सकता है, क्योंकि स्तम्भ और पुरुष दोनों का अस्तित्व है | को वा विसेसहेऊ, सव्वाभावे वि थाणु- पुरिसे । संका न खपुप्फाइ, विवज्जओ वा कहं न भवे ॥ ( विभा १६९८ ) ऐसा कौन-सा विशेष हेतु है, जिसके कारण सब पदार्थों का अभाव होने पर भी स्तंभ और पुरुष विषय में संदेह होता है, आकाशकुसुम और गधे के सींग के विषय में नहीं होता, इससे स्पष्ट है कि आकाशकुसुम की भांति सब कुछ शून्य नहीं है । गणधर सुधर्मा कि मणि जारिस इहभर्वाम्म, सो तारिसी परभवेऽवि । ( अवनि ६१६ ) सुधर्मा ! तुम्हारा मानना है कि जीव जैसा इस भव में होता है वैसा ही परभव में होता है । कारणसरिसं कज्जं, बीयस्सेवंकुरो त्ति मण्णंतो । इहभवसरिसं सव्वं, जमवेसि परे वि तमजुत्तं ॥ ( विभा १७७३ ) तुम यह मानते हो कि कारण जैसा ही कार्य होता है, जैसा बीज वैसा अंकुर । इसी प्रकार इस जन्म जैसा ही अगला जन्म होता है, किन्तु तुम्हारा यह मत संगत नहीं है । जाइ सरो सिंगाओ, भूतणओ सासवाणुलित्ताओ । संजायइ गोलोमाऽविलोमसंजोगओ दुव्वा ॥ Jain Education International २३६ ( विभा १७७४) गणधर मंडित सींग से सर वनस्पति उत्पन्न होती है । उस वनस्पति पर यदि सरसों का लेप कर दिया जाये तो उससे भूतृण ( एक प्रकार की घास) उत्पन्न होती है । गाय एवं बकरी के बालों से दूब उत्पन्न होती है । इति रुक्खायुव्वेदे, जोणिविहाणे य विसरिसेहितो । दीसइ जम्हा जम्मं, सुहम्म ! तो नायमेगंतो ॥ ( विभा १७७५ ) वृक्षायुर्वेद और योनिप्राभृत में यह सिद्धांत प्रतिपादित है कि कार्य कारण से विलक्षण भी हो सकता है । इसलिए सुधर्मा ! तुम्हारी उपर्युक्त मान्यता एकान्ततः सम्यक् नहीं है । अहव जउ च्चिय बीयाणुरुवजम्मं मयं तओ चेव । जीवं गिण्ह भवाओ, भवंतरे चित्तपरिणामं ॥ ( विभा १७७६ ) यदि तुम कारण के अनुरूप कार्य मानते हो तो भी तुम्हें जीव को वर्तमान जन्म से अगले जन्म में भिन्न मानना होगा। क्योंकि भवांकुर का बीज मनुष्य नहीं, कर्म है ? वह विचित्र प्रकार का होता है । गणधर मंडित fi for बंध मोक्खा, अत्थि ण अत्थित्ति संसओ तुज्भं । ( आवनि ६२० ) तं मण्णसि जइ बंधो, जोगो जीवस्स कम्मुणा समयं । पुव्वं पच्छा जीवो, कम्मं व समं व ते होज्जा ॥ ( विभा १८०५ ) मंडित ! बंध और मोक्ष है या नहीं - तुम्हारे मन में यह संदेह है । तुम्हारा मानना है कि जीव के साथ कर्म का संयोग ही यदि बंध है तो पहले जीव और पश्चात् कर्म उत्पन्न हुआ अथवा पहले कर्म और पश्चात् जीव उत्पन्न हुआ अथवा दोनों एक साथ उत्पन्न हुए - यह प्रश्न अनुत्तरित इसलिए न बन्ध है और न मोक्ष | है, संताणोऽणाईओ, परोप्परं हेउ हेउभावाओ । देहस्स य कम्मस्स य, मंडिय ! बीयंकुराणं व ॥ ( विभा १८१३) संतति अनादि है । परस्पर कार्य - मंडित ! शरीर और कर्म की क्योंकि इनमें बीज और अंकुर के समान कारण भाव है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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