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________________ काव्यरस २२२ से दुर्गन्धित, नाना प्रकार के मलों से कलुषित निकृष्ट युक्त और पुष्ट कान्ति वाला मुनि का मुखकमल सुशोभित शरीर को जो छोड़ देते हैं, वे धन्य हैं। हो रहा है। हास्य रस की उत्पत्ति और लक्षण एए नव कव्वरसा, बत्तीसदोसविहिसमुप्पन्ना। रूव-वय-वेस-भासाविवरीयविलंबणासमुप्पन्नो । गाहाहिं मुणेयव्वा, हवंति सुद्धा व मीसा वा ।। हासो मणप्पहासो, पगासलिंगो रसो होइ । (अनु ३१८॥३) बत्तीस दोष-विधियों से समूत्पन्न ये नौ काव्य रस पासुत्त-मसीमंडिय-पडिबुद्धं देयरं पलोयंती । उक्त गाथाओं से जानने चाहिए। ये रस किसी काव्य में ही! जह थण-भर-कंपण-पणमियमझा हसइ सामा । शुद्ध और किसी में मिश्र (अनेक रसों के मिश्रण वाले) (अनु ३१६६१,२) होते हैं। रूप, वय, वेष और भाषा के विपर्यय की विडम्बना (प्रयोग) से मन को आह्लादित करने वाला हास्य रस कुंथु-सतरहवें तीर्थंकर । (द्र. तीथंकर) उत्पन्न होता है । प्रकाश (मुख, नेत्र आदि का विकास) कुत्रिकापण—वह आपण, जहां तीन लोक में प्राप्य उसका लक्षण है। हास्य रस, जैसे सभी वस्तुएं मिलती हैं। स्तनों के भार के कम्पन से झुकी हुई कटिप्रदेश भुवनत्रयेऽपि यद्वस्तुजातं तत् कुत्रिकमित्युच्यते । वाली श्यामा स्त्री अपने सुप्त देवर को मसि-मण्डित तस्य पणायानिमित्तमापणो-हद्रः कूत्रिकापणः । यदिवा करती है और जब वह जागता है, तब ही ही' को-पृथिव्यां त्रिकस्य- जीवधातुमूलात्मकस्य समस्तशब्दोच्चारणपूर्वक हंसती है । लोकभाविनो वस्तुजातस्यापणः कुत्रिकापणः । अस्मिश्च करुण रस की उत्पत्ति और लक्षण कुत्रिकापणे वणिजः कस्यापि मन्त्राधाराधितः सिद्धो पियविप्पओग-बंध-वह-वाहि-विणिवाय-संभमप्पन्नो। व्यन्तरः सुरः क्रायकजनसमीहितं समस्तमपि वस्तु सोइय-विलविय-पव्वाय-रुण्णलिंगो रसो करुणो॥ कूतोऽप्यानीय सम्पादयति, तन्मूल्यद्रव्यं तु वणिग् पज्झाय-किलामिययं, बाहागयपप्पुयच्छियं बहुसो । तस्स विओगे पुत्तिय ! दुब्बलयं ते मुहं जायं ।। अन्ये त्वभिदधति-वणिग्विवजिता: सूराधिष्ठिता एव ते आपणाः सन्ति, मूल्यद्रव्यमपि स एव व्यन्तरसुरः प्रिय-वियोग, बंध, वध, व्याधि, विनिपात (पुत्र । स्वीकरोति । एते च कुत्रिकापणाः प्रतिनियतेष्वेव नगरेषु आदि की मृत्यु) और संभ्रम से करुण रस उत्पन्न भवन्ति, न सर्वत्र । (आवमव प ४१४) होता है। शोक, विलाप, म्लान और रोदन उसके लक्षण स्वर्ग, मर्त्यलोक और पाताल-इन तीनों लोकों हैं। करुण रस, जैसे की वस्तुएं जहां उपलब्ध होती हैं, वह कुत्रिकापण है । हे पुत्रि ! उसके वियोग में दुश्चिन्ता से क्लान्त और इसका स्वामी वणिक मंत्र-आराधना से किसी व्यंतर देव आंसूओं से भरी हुई आंखों वाला तुम्हारा मुख दुर्बल हो को सिद्ध करता है। वह देव ग्राहक द्वारा याचित सारी गया है। वस्तुएं कहीं से भी लाकर दे देता है । उस वस्तु का मूल्य शान्त रस की उत्पत्ति और लक्षण वणिक् ग्रहण करता है। निहोसमण-समाहाणसंभवो जो पसंतभावेणं । एक मत यह भी है कि कुत्रिकापण के अधिष्ठाता अविकारलक्खणो सो, रसो पसंतो त्ति नायव्वो ॥ व्यन्तर देव ही होते हैं और वहां कोई वणिक् नहीं सब्भाव-निव्विगारं, होता । वस्तु का मूल्य भी देव ही ग्रहण करते हैं। उवसंत-पसंत-सोमदिट्ठीयं । कुत्रिकापण प्रतिनियत नगरों (उज्जयिनी, भगुकच्छ आदि) ही ! जह मुणिणो सोहइ, मुहकमलं पीवरसिरीयं ।। में ही होते हैं, सर्वत्र नहीं। (अनु ३१८।१,२) स्वस्थ मन की समाधि (एकाग्रता) और प्रशान्त कुल-पितृसत्ताक व्यवस्था वाला पारिवारिक भाव से शान्त रस उत्पन्न होता है। अविकार उसका संगठन । लक्षण है । शान्त रस, जैसे--- कुलनामे --- उग्गे भोगे राइण्णे खत्तिए इक्खागे नाते स्वभाव से निविकार, उपशान्त, प्रशान्त, सौम्यदृष्टि कोरव्वे । (अनु ३४३) गृह्णाति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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