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________________ कषाय-विजय के उपाय कषाय __अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण | प्रत्याख्यानावरण | सज्वलन क्रोध | शैल की रेखा के समान | भूमि की रेखा के समान | रेणु की रेखा के समान | जल की रेखा के समान मान | शैल स्तम्भ के समान | अस्थि स्तम्भ के समान | काष्ठ स्तम्भ के समान | तिनिशलता स्तम्भ के समान माया | वंशीमूल के समान । मेष-विषाण के समान , गोमूत्रिका के समान । अवलेखनिका के समान लोभ । कृमिराग के समान | कर्दमराग के समान खंजनराग के समान । हरिद्राराग के समान ऋण, व्रण, अग्नि और कषाय-इनकी अल्पता पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। ये अल्पमात्रा में होते हुए भी बहुत होते हैं। उवसामं उवणीआ गुणमहया जिणचरित्तसरिसंपि । पडिवायंति कसाया कि पुण सेसे सरागत्थे ?॥ (आवनि ११८) कषायों का उपशमन करने वाले तथा महान् गुणों से अर्हत के समान चारित्र वाले व्यक्ति को भी कषाय नीचे गिरा देते हैं, फिर सरागी व्यक्तियों की तो बात ही क्या ? ६. कषाय : पुनर्जन्म का हेतु कोहो य माणो य अणिग्गहीया __ माया य लोभो य पवड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ।। (द ८।३९) अनिगहीत क्रोध और मान, प्रवर्धमान माया और लोभ-ये चारों संक्लिष्ट कषाय पुनर्जन्म रूपी वृक्ष की जड़ों का सिंचन करते हैं। ७. कषाय : पतन का हेतु अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई। माया गईपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ।। (उ ९।५४) मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है। मान से अधम गति होती है। माया से सुगति का विनाश होता है। लोभ से दोनों प्रकार का-ऐहिक और पारलौकिक भय होता है। कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो । (द ८।३७) क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करने वाला है, माया मैत्री का विनाश करती है और लोभ सब का नाश करने वाला है। सामन्नमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति। मन्नामि उच्छ फुल्लं व, निफ्फलं तस्स सामन्नं ।। (दनि २०३) जिस श्रमण का कषाय प्रबल होता है, उसका श्रामण्य इक्षपुष्प की भांति निष्फल होता है। इसलिए श्रमण को कषाय का निग्रह करना चाहिए। अणथोवं वणथोवं अग्गीथोवं कसायथोवं च । ण हुभे वीससियव्वं थेवपि हु तं बहुं होइ ।। (आवनि १२०) ८. कषाय-विजय के उपाय उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। (द ८।३८) उपशम से क्रोध का हनन करे, मृदुता से मान को जीते, ऋजुभाव से माया को और संतोष से लोभ को जीते । कसाया अग्गिणो वृत्ता, सुयसीलतवो जलं । सुयधाराभिहया संता, भिन्ना हुन डहंति मे ।। (उ २३।५३) गौतम ने केशीकुमार श्रमण से कहा- कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और तप जल है। श्रुत की धारा से आहत किए जाने पर निस्तेज बनी हुई वे अग्नियो मुझे नहीं जलातीं। बारसविहे कसाए खइए उवसामिए व जोगेहिं । लब्भइ चरित्तलंभो...॥ (आवनि ११३) प्रशस्त ध्यानयोग के द्वारा बारह प्रकार के कषायों का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम होता है, तब चारित्र की प्राप्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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