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________________ कर्म १९४ जीव की विविधता का हेतु- कर्म जह वेह कंचणोवेलसंजोगोऽणाइसंतइगओवि। ४. परिणामित्व ---शरीर आदि के रूप में कर्म का वोच्छिज्जइ सोवायं तह जोगो जीव कम्माणं ।। परिणामित्व परिलक्षित होता है। जैसे---दही का (विभा १८१७, १८१९) तक्र के रूप में परिणमन होने से दूध का परिणाजीव और कर्म के संयोग की सन्तति (प्रवाह/ मित्व जाना जाता है। परम्परा) अनादि है, अत: वह अनन्त है -- यह बात ३२. मूर्त से अमूर्त का अनुग्रह-निग्रह एकान्तिक नहीं है । जैसे-बीज और अंकुर का अनादि मुत्तेणामुत्तिमओ उवघायाऽणुग्गहा कहं होज्जा ? कालीन संबंध भी सान्त होता है । जैसे स्वर्ण और मिट्टी जह विण्णाणाईणं मइरापाणोसहाईहिं । का अनादिकालीन संयोग संतानगत होने पर भी अग्नि आदि उपायों से विच्छिन्न होता है, वैसे ही जीव और यथाऽमूर्तानामपि विज्ञान-विविदिषा-धति-स्मृत्यादिकर्म का सन्तानगत/प्रवाह रूप से अनादि संबंध तप, संयम जीवधर्माणां मूतैरपि मदिरापान-हृत्पूर-विष-पिपीलिआदि उपायों से विच्छिन्न होता है । कादिभिर्भ क्षितैरुपघात: क्रियते, पयःशर्करा-घृतपूर्णभेष जादिभिस्त्वनुग्रह इत्येवमिहापीति । एतच्च जीवस्यामूर्त३०. संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त त्वमभ्युपगम्योक्तम् । (विभा १६३७ मवृ पृ ६०१) अहवा नेगंतोऽयं संसारी सव्वहा अमुत्तो त्ति । कर्म मूर्त है, जीव अमूर्त है। इस स्थिति में कर्म जमणाइकम्मसंतइपरिणामावन्नरूवो सो ॥ जीव का अनुग्रह-निग्रह कैसे कर सकता है ? इसका वह्नययापिण्डन्यायेन...... मृतकर्मणः कथञ्चि समाधान यह है-जैसे मदिरापान और विषभक्षण आदि दनन्यत्वाद् मूर्तोऽपि कथञ्चिज्जीवः । से विज्ञान, जिज्ञासा, धृति, स्मृति आदि जीव के अमूर्त (विभा १६३८ मत पृ६०१) गुणों का उपघात तथा दूध, शर्करा, घतपूर्ण, भेषज आदि एकान्त रूप से संसारी जीव सर्वथा अमूर्त नहीं है। से उनका अनुग्रह होता है, वैसे ही मूर्त्त कर्म से अमूर्त अनादिकाल से कर्मसंतति जीव के साथ वैसे ही एकमेक जीव का उपघात और अनुग्रह होता है । है, जैसे लोहपिण्ड में अग्नि । मूर्त्त कर्म के साथ जीव का कथंचित् अनन्य संबंध होने से जीव कथंचित् मूर्त है। ३३. आत्मा और कर्म सहगामी ३१. कर्म को मूर्तता के हेतु चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं । तह सुहसंवित्तीओ संबंधे वेयणुब्भवाओ य । कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ।। बज्झबलाहाणाओ परिणामाओ य विण्णेयं ॥ (उ १३।२४) आहार इवानल इव घडव्व नेहाइकयबलाहाणो । यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, खीरमिवोदाहरणाई कम्मरूवित्तगमगाई॥ धन, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़कर केवल अपने (विभा १६२६, १६२७) किए कर्मों को साथ लेकर सुखद या दुःखद परभव में कर्म की मूर्तता के चार हेतु जाता है। १. सख संवित्ति-कर्म का संबंध होने पर सुख का तेणावि जं कयं कम्मं सुहं वा जइ वा दुहं । संवेदन होता है। (जिसके संबंध से सुख का संवेदन कम्मुणा तेण संजुत्ता, गच्छई उ परं भव ॥ होता है. वह मृत है) जैसे-आहार से क्षुधाशान्ति (उ १८।१७) रूप सुख का संवेदन होता है। मरने वाले व्यक्ति ने भी जो कर्म किया- सुखकर २. वेदना का उद्भव-कर्म के संबंध से वेदना का या दुःखकर, उसी के साथ वह परभव में चला जाता उदभव होता है। जैसे -अग्नि से ताप का उद्भव। ३. बाह्य बल का आधान --मिथ्यात्व आदि की हेतुभत ३४. जीव को विविधता का हेतु-कर्म बाह्य सामग्री से कर्म का उपचय होता है, इससे समानयोनिका अपि विचित्रवर्णसंस्थाना दृश्यन्ते कर्म की शक्ति बढ़ जाती है। जैसे-स्नेह से अभि- प्राणिनः । तथाहि-गोमयाद्येकयोनिसम्भविनोऽपि षिक्त घट परिपक्व होता है। केचिन्नीलतनवोऽपरे पीतकाया अन्ये विचित्रवर्णाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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