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________________ करण के निक्षेप १७७ करण के बाद अन्तरकरण में औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता चोरों का दृष्टांत है। वह मिथ्यात्व दलिकों के तीन पुञ्ज करता है, जह वा तिन्नि मणसा जंतऽडविपहं सहावगमणेणं । इसलिए औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत होकर वह क्षायो वेलाइक्कमभीआ तुरंति पत्ता य दो चोरा ॥ शमिक सम्यग्दृष्टि, मिश्रदृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि भी हो दटुं मग्गतडत्थे ते एगो मग्गओ पडिनियत्तो। सकता है। बितिओ गहिओ तइओ समइक्कतं पूरं पत्तो । ____ अन्य मान्यता-यथाप्रवृत्ति आदि करणत्रय को अडवी भवो मणूसा जीवा कम्मट्टिई पहो दीहो । क्रमशः करता हुआ जीव अन्तरकरण में औपशमिक गंठी य भयवाणं राग-दोसा य दो चोरा ॥ सम्यक्त्व प्राप्त करता है। वह मिथ्यात्व दलिकों के भग्गो ठिइपरिवड्ढी गहिओ पण गंठिओ गओ तइओ। तीन पुञ्ज नहीं करता, इसलिए औपशमिक सम्यक्त्व से सम्मत्तपुरं एवं जोएज्जा तिण्णि करणाणि ॥ च्युत होकर निश्चित ही मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। (विभा १२११-१२१४) ७. ग्रन्थिभेद : भव्य-अभव्य तीन मनुष्य एक साथ यात्रा करते हुए अटवी मार्ग जे भविया ते तं गठिं केवि समतिच्छति । केवि ततो से जा रहे थे। समय के अतिक्रमण के भय से उन्होंने चेव पडिणियत्तंति । जे अभविया ते नियमा ततो चेव त्वरता की। वहां उन्हें दो चोर मिले। उनमें से एक पडिणियत्तंति । जहा पिपीलियाओ बिलाओद्धाइयाओ व्यक्ति मार्ग में स्थित चोर को देखकर लौट गया। समाणीओ एगं खाणुयं विलग्गेति, तत्थ जासि पक्खा दूसरा चोरों द्वारा पकड़ा गया। तीसरा गन्तव्य अत्थि ता उड़डेंति, जासि नत्थि ता ततो चेव पडिणिय- स्थान पर पहुंच गया। तंति । (आव १ पृ ९९) अटवी के समान है भव । मनुष्य के समान है जीव । ग्रन्थिभेद के योग्य कर्म स्थिति होने पर जो भव्य लम्बा मार्ग है कर्म स्थिति । भय स्थान के समान है ग्रन्थि । जीव होते हैं, उनमें से कुछ ग्रन्थिभेदन करते हैं, कुछ न राग और द्वेष के तुल्य हैं चोर । जो चोर लौट गया, उसके तुल्य है-कर्म स्थिति की पुनः लौट जाते हैं, ग्रन्थिभेदन नहीं कर पाते । वृद्धि । जो पकड़ा गया, उसके तुल्य है-ग्रन्थि-स्थान की __अभव्य जीव निश्चित ही ग्रन्थिभेद नहीं कर पाते। प्राप्ति । जिसने गन्तव्य स्थान को प्राप्त कर लिया, जैसे-चींटियां बिल से निकल कर स्थाण पर चढ़ती हैं। उसके समान है--सम्यक्त्व की प्राप्ति । उनमें से जिनके पंख होते हैं, वे उड़ जाती हैं, जिनके पंख नहीं होते, वे गिर जाती हैं। ८. करण (क्रिया) को परिभाषा महाज्वर का दृष्टांत करणं किरिया भावो संभवओ वेह...........॥ भेसज्जेण सयं वा नस्सइ जरओ न नस्सए कोइ । कृतिनिर्वृत्तिर्वस्तुनः करणमुच्यते । भव्वस्स - गंठिदेसे मिच्छत्तमहाजरो चेवं ॥ (विभा ३३०१; मवृ पृ ३०१) (विभा १२१६) करण का अर्थ है -क्रिया। जो किया जाता है, वह ज्वरग्रस्त किसी व्यक्ति का ज्वर स्वतः चला जाता करण है । अथवा जिसके द्वारा, जिससे या जिसमें किया है, किसी का औषधि सेवन से चला जाता है और किसी जाता है, वह करण है। किसी भी वस्तु का निर्वर्तन का ज्वर नष्ट नहीं होता। वैसे ही भव्य प्राणी के करना करण कहलाता है। मिथ्यात्व रूप महाज्वर की ये तीनों स्थितियां होती है. करण के निक्षेप नाम ठवणा दव्वं खित्ते काले तहेव भावे य । किसी का मिथ्यात्व ग्रन्थिभेद से स्वतः चला जाता एसो खलु करणंमी णिक्खेवो छन्विहो होइ ।। (उनि १८३) __ किसी का मिथ्यात्व गुरु के उपदेश रूप भेषज से करण के छह निक्षेप हैंचला जाता है। नाम, स्थापना, द्रव्य , क्षेत्र, काल और भाव । किसी का मिथ्यात्व नष्ट नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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