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________________ आहार-विवेक आहार बचे हुए आहार की व्यवस्था एक वणिक् जहाज को भाण्ड से भरकर ले होज्ज सिआ उद्धरियं तत्थ य आयंबिलाइणो हज्जा। गया, पर खाली हाथ लौटा-ससारो गओ, असारो पडिदेसि अ संदिट्ठो वाहरइ तओ चउत्थाई ।। आगओ। मोहचिगिच्छविगिट्ठ गिलाण अत्तट्टियं च मोत्तूणं ।... एक वणिक खाली जहाज लेकर गया पर लौटते समय जहाज को भरकर लौटा--असारो गओ, ससारो आहार शेष बच जाने पर मुनि आचार्य से अनुमति आगओ। प्राप्त कर आयंबिल, लंघन आदि करने वाले मुनियों चौथा वणिक् खाली गया और खाली लोटामें उस आहार का वितरण कर दे। मोह-चिकित्सा के असारो गओ, असारो आगओ। लिए उपवास करने वालों, विकृष्ट तप (तेला आदि) ६. आहार-विवेक करने वालों तथा ग्लान और आत्मलब्धिक मुनि को । निद्धमहुराणि पुव्वं पित्ताइपसमणट्ठया भुंजे । बचा हुआ आहार न दे। बुद्धिबलवड्ढणट्ठा॥ (ओभा २८४) ५. आहार और भावना आहार करते समय सबसे पहले स्निग्ध और मधुर अह होइ भावधासेसणा उ अप्पाणमप्पणा चेव । पदार्थ खाने चाहिए । इनसे पित्त आदि का शमन होता साहू भुजिउकामो अणुसासइ निज्जरट्ठाए ॥ है, शक्ति और बुद्धि का संवर्धन होता है। बायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव ! न हु छलिओ। 'घृतेन वर्धते मेधा'-घृत से मेधा बढ़ती है। एहि जह न छलिज्जसि भुजंतो रागदोसेहिं ॥ (ओनि ५४४,५४५) तेल्लदहिसमाओगा अहिओ खीरदहिकंजियाणं च । मैं मनोज्ञ-अमनोज्ञ आहार में राग-द्वेष करता हुआ पत्थं पुण रोगहरं न य हेऊ होइ रोगस्स ॥ आधाकर्म आदि एषणा के बयालीस दोषों के गहन वन (पिनि ६४९) में भटक न जाऊं- इस भावना से आहारार्थी मुनि विरोधी अथवा बेमेल द्रव्यों को मिलाने से आहार अपने आपको भावित और अनुशासित करता है-यह अहितकर बन जाता है। दही और तैल का तथा दूध, भाव ग्रासैषणा है। दही और कांजी का मिश्रण अहितकर है। इससे अनेक अंततं भोक्खामित्ति बेसए भुंजए य तह चेव । रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अविरुद्ध द्रव्यों का मिश्रण पथ्य आहार की कोटि में आता है। पथ्य आहार के एस संसारनिविट्ठो ससारओ उट्रिओ साह ॥ एमेव य भंगतिअं जोएयव्वं तु सारनाणाई। सेवन से पुराना रोग नष्ट हो जाता है, नया रोग उत्पन्न तेण सहिओ ससारो समुद्दवणिएण दिळंतो।। नहीं होता। __ (ओनि ५७१,५७२) असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबिअं अपरिसाडि । 'मैं अन्तप्रान्त/रूखा-सूखा आहार करूंगा'-इस मणवयणकायगुत्तो, भुंजइ अह पक्खिवणसोहिं ।। परिणाम से आहार करने वाला मुनि 'ससार उपविष्ट' (ओभा २८९) और 'ससार उत्थित' अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पन्न मुनि आहार करते समय 'सुर-सुर' या 'चवचव' होता है। इसके चार विकल्प हैं शब्द न करे। बहुत जल्दी-जल्दी या बहुत धीरे-धीरे न ससार उपविष्ट, ससार उत्थित खाये । नीचे गिराता हुआ न खाये । 'यह आहार मनोज्ञ ससार उपविष्ट, असार उत्थित है या अमनोज्ञ'-इस विषय में न सोचे, मन-वचनअसार उपविष्ट, ससार उत्थित काया का संयम करे। असार उपविष्ट, असार उत्थित पडिग्गहं संलिहित्ताणं, लेवमायाए संजए। एक सामुद्रिक व्यापारी अपने जहाज को माल से दुगंध वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न छड्डए । भर कर ले गया और लौटते समय हिरण्य, सुवर्ण का (द ५।२।१) अर्जन कर लौटा-ससारो गओ, ससारो आगओ। संयमी मुनि लेप लगा रहे तब तक पात्र को पोंछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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