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________________ आहार से पूर्व आलोचना योग्य हैं । वे सात 'आलोक' कहलाते हैं -- १. स्थान आलोक – जहां आवागमन न हो । २. दिशा आलोक - आहार करते आगे-पीछे न बैठे, किन्तु गुरु आग्नेय दिशा में बैठे । समय मुनि गुरु के की ईशान अथवा ६. गुरु आलोक - आहार आदि गुरु को दिखाकर उनके दृष्टिपथ में बैठकर खाये । ७. भाव आलोक --- ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि और उनकी अव्यवच्छित्ति के लिए आहार करे । ३. आहार से पूर्व आलोचना विणण पट्टवित्ता सज्झायं कुणइ तो मुहुत्तागं । पुव्वभणिया य दोसा परिस्समाई जढा एवं ॥ (ओनि ५२१ ) कायोत्सर्ग के पश्चात् स्वाध्याय को प्रस्थापित कर ३. प्रकाश आलोक - आहार का स्थान प्रकाशयुक्त मुहूर्त भर के लिए स्वाध्याय करे ( जघन्यतः तीन हो । गाथाओं का और उत्कृष्टतः सूक्ष्म आनप्राण-लब्धि सम्पन्न मुनि अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो का परावर्तन कर लेता है) । इस कालक्षेप से श्रमजन्य विषमता, धातुक्षोभ से उत्पन्न दोष स्वतः शान्त हो जाते हैं । ४. भाजन आलोक- पात्र संकीर्ण मुख वाला न हो । ५. प्रक्षेप आलोक - कवल प्रमाणोपेत हो । उज्जुप्पन्न अणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेयसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहियं भवे ॥ (द ५।१।९० ) ऋजुप्रज्ञ, अनुद्विग्न संयति व्याक्षेपरहित चित्त से गुरु के समीप आलोचना करे। जिस प्रकार से भिक्षा ली हो, उसी प्रकार से गुरु को कहे । कायोत्सर्ग ता दुरालो भत्तपाण एसणमणेसणाए उ । अट्ठस्सा अहवा अणुग्गहादीउ भाएज्जा ॥ ( ओभा २७४ ) भिक्षाचर्या से लौटकर गुरु के पास यदि भलीभांति आलोचना न की हो, भक्तपान पूरा न दिखाया हो, कदाचित् सूक्ष्म एषणा दोष लगा हो, अथवा अनजान में एषणा न की हो तो इनकी विशुद्धि के लिए श्वासोच्छ्वास के साथ आठ बार नमस्कार मंत्र का कायोत्सर्ग करे अथवा अनुग्रह का चिन्तन करे । जैसे अहो जिणेहि असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया । मक्खसाहणउस्स, साहुदेहस्स धारणा || (द ५।११९२ ) अहो ! अर्हतों ने साधुओं के मोक्षसाधना के हेतुभूत शरीर को धारण करने के लिए निरवद्य ( निर्दोष ) आहारवृत्ति का प्रतिपादन किया है । Jain Education International १३५ स्वाध्याय आहार नमोक्कारेण पारेत्ता, करेत्ता जिणसंथवं । सज्झायं पट्टवेत्ताणं, वीसमेज्ज खणं मुणी ॥ (द ५।१।९३ ) इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को नमस्कार मंत्र के द्वारा पूर्ण कर जिनसंस्तव ( तीर्थङ्कर - स्तुति ) करे, - फिर स्वाध्याय की प्रस्थापना (प्रारम्भ ) करे । क्षण-भर विश्राम ले । वीसमंतो इमं चिते, हियमठ्ठे लाभमट्टिओ । जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हांज्जामि तारिओ ॥ (द ५।१।९४) विश्राम करता हुआ मोक्षार्थी मुनि इस हितकर अर्थ का चिन्तन करे -- यदि आचार्य और साधु मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं निहाल हो जाऊं मानूं कि उन्होंने मुझे भवसागर से तार दिया । साधर्मिकों को निमन्त्रण - For Private & Personal Use Only इयरोवि गुरुसगासं गंतूण भगइ संदिसह भंते ! | पाहुणगखवगतरं तबालवुड्ढाण सेहाणं ॥ दिणे गुरूहि तेसि सेसं भुंजेज्ज गुरुअणुन्नायं । गुरुणा संदिट्ठो वा दाउ सेसं तओ भुंजे || (आंनि ५२३, ५२४) भिक्षा लाने के बाद आहार करने से पूर्व मुनि गुरु को निवेदन करे 'आर्य वर ! मेरे द्वारा आनीत यह भोजन आप अतिथि, क्षपक (तपस्वी), रोगी, बाल, शैक्ष एवं वृद्ध मुनियों को प्रदान करें।' इस निवेदन पर जब गुरु दूसरों को भोजन दे दे, तब गुरु की आज्ञा से शेष बचे भोजन को स्वयं खाए । अथवा गुरु के कहने पर वह मुनि स्वयं अतिथि आदि साधुओं को भोजन दे तो शेष बचे भोजन से अपना निर्वाह करे । www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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