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________________ आलोचना १२४ आलोचना के परिणाम आचार्य का योग न हो तो गीतार्थ मुनि की खोज कर ढड्ढर-उच्च स्वर से आलोचना करना-- उसके पास आलोचना करे। गीतार्थ साधू आदि के इन दोषों का वर्जन करते हए गुरु के समक्ष अभाव में सिद्धों की साक्षी से आलोचना करने का संसृष्ट-असंसृष्ट हाथ, पात्र आदि संबंधी तथा विधान है। दाता संबंधी आलोचना करनी चाहिए। आहार (व्यवहार सूत्र के अनुसार--आचार्य, उपाध्याय, आदि जिस रूप में ग्रहण किया है, उसी रूप में बहुश्रुत साधमिक साधु, बहुश्रुत अन्य सांभोगिक साधु, क्रमश: गुरु को निवेदन करना चाहिये । बहुश्रुत सारूपिक, बहुश्रुत पश्चात्कृत श्रमणोपासक, ६. आलोचना के परिणाम सम्यक् भावित चैत्य, अर्हत्-सिद्ध-- इस प्रकार क्रमशः एक के अभाव में दूसरे के पास आलोचना करना विहित .."आलोयणाए णं मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं है। देखें- व्यवहार ११३) मोक्खमग्गविग्घाणं अणंतसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ । ४. आलोचना : परसाक्षी से उज्जुभावं च जणयइ । उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाइ इत्थीवेयनपुंसगवेयं च न बंधइ पुव्वबद्धं च णं छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स कायव्वा । णिज्जरेइ । (उ २९।६) परसक्खिया विसोही सूटठवि ववहारकूसलेणं ।। भावोजना जीत अन्न संसार को बढ़ाने वाले (आनि ७९०) मोक्षमार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले माया, निदान तथा जाति, कुल, बल आदि छत्तीस गुणों से सम्पन्न मिथ्यादर्शन शल्य को निकाल फेंकता है और ऋजुभाव व्यवहार-कुशल मुनि को भी दूसरों की साक्षी से ही को प्राप्त होता है । वह अमायी होता है, इसलिए वह आलोचना करनी चाहिये। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद कर्म का बन्ध नहीं करता और जह सुकुसलोऽवि विज्जो अन्नस्स कहेइ अप्पणो वाही। यदि वे पहले बंधे हुए हों तो उनका क्षय कर देता है। सोऊण तस्स विज्जस्स सोवि परिकम्ममारभइ ।। उद्धरियसव्वसल्लो आलोइयनिदिओ गुरुसगासे । एवं जाणंतेणवि पायच्छित्तविहिमप्पणो सम्म । होइ अतिरेगलहुओ ओहरियभरो व्व भारवहो ।। तहवि य पागडतरयं आलोएतव्वयं होइ ।। (ओनि ८०६) (ओनि ७९५, ७९६) जैसे भारवाहक भार को नीचे उतारकर जैसे वैद्य कुशल होने पर भी अपनी व्याधि दूसरे हल्केपन का अनुभव करता है, वैसे ही गुरु के समक्ष वैद्य को बताता है तथा उस वैद्य द्वारा निर्दिष्ट चिकित्सा आलोचना तथा निन्दा कर नि:शल्य बना साधक अतिरिक्त करता है, वैसे ही स्वयं प्रायश्चित्त-विधिवेत्ता होने पर हल्केपन का अनुभव करता है। भी मुनि को अपने दोषों की प्रकट रूप में आलोचना नवि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। अन्य बहुश्रत के पास करनी चाहिए। जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइणो कुद्धो ॥ ५. आलोचना काल में वर्जनीय दोष जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तमट्टकालंमि । नट्ट वलं चलं भासं मूयं तह ढड्ढरं च वज्जेज्जा। दुल्लभवोहीयत्तं अणंतसंसारियत्तं च ॥ आलोएज्ज सुविहिओ हत्थं मत्तं च वावारं ॥ (ओनि ८०३, ८०४) एयद्दोसविमुक्कं गुरुणा गुरुसम्मयस्स वाऽऽलोए। शस्त्र, विष, दुःसाधित वेताल, दुष्प्रयुक्त यन्त्र और जं जह गहियं तु भवे पढमाओ जा भवे चरिमा ॥ ऋद्ध सर्प उतना कष्टदायक नहीं होता, f (ओनि ५१६, ५१७) आदि भावशल्य । नत्य--अंगों को नचाते हुए आलोचना करना। अनशनकाल में सशल्य मरने वाला व्यक्ति दुर्लभबोधि वल-शरीर को मोड़ते हुए आलोचना करना । और अनन्तसंसारी हो जाता है। चल-अंगों को चालित करते हए आलोचना करना। भाषा-असंयत या गृहस्थ की भाषा में आलोचना करना। निन्दा और उसके परिणाम मूक-मूक स्वर से 'गुणमुण' करते हुए आलोचना करना। सप्पच्चक्खदुगंछा तह निंदा"। (विभा ३५७५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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