SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आभिनिबोधिक ज्ञान को जैसे घड़े का कारण है मृत्पिण्ड । मतिज्ञान से ही श्रुत विशेष अवस्था प्राप्त होती है। बहुत सारे श्रुतग्रंथों में भी जिस ग्रंथ के विषय में स्मरण, ईहा, अपोह आदि मतिरूपों का अधिकतर प्रयोग होता है, वह ग्रन्थ अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है, शेष उतने स्पष्ट नहीं होते । भेद विभाग की दृष्टि से भेयकयं व विसेसणमट्ठावीस इविहंगभेयाइ । ( विभा ११६ ) मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा आदि अठाईस भेद हैं और श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट, अनंगप्रविष्ट आदि चौदह भेद हैं । इन्द्रिय-विभाग की दृष्टि से सोदियओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं । मोत्तूणं दव्वसुयं अक्खरलंभो यसे ॥ ( विभा ११७ ) श्रोत्रेन्द्रिय के माध्यम से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । चक्षु आदि शेष चार इन्द्रियों के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है । द्रव्यश्रुत ( पुस्तक आदि ) ही नहीं, शेष चारों इन्द्रियों से जो अक्षर-लाभ होता है, वह भी श्रुत है I कारण- कार्य की दृष्टि से 'मई वग्गसमा सुम्बसरिसयं सुतं ॥ ( विभा १५४ ) मतिज्ञान कारण है | श्रुतज्ञान कार्य है । मति वल्क के समान है | श्रुत रज्जु के समान है । ( वल्क कारण है, रज्जु कार्य है ।) अक्षर-अनक्षर की दृष्टि से ......... अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ । मइनाणं, सुत्तं पुण उभयं पि अणक्खरक्खरओ ।। ( विभा १७० ) व्यञ्जनाक्षर की अपेक्षा से मतिज्ञान अनक्षर है । श्रुतज्ञान अक्षर और अनक्षर दोनों प्रकार का है । मूक अमूक की दृष्टि से सपर पच्चायणओ भेओ जं मूयं मइनाणं मूओयराण वाभिहिओ । सपर पच्चायगं सुतं ॥ ( विभा १७१ ) मतिज्ञान मूक के सदृश है । वह केवल अपने को ही Jain Education International मति और श्रुत में अभेद प्रकाशित करता है। श्रुतज्ञान अमूक के सदृश है । वह स्व-पर- दोनों को प्रकाशित करता है । ११८ काल की दृष्टि से वार्तमानिकं वस्त्वभिनिबोधिकज्ञानस्य ज्ञेयं, त्रिकाल - साधारणः समानपरिणामो ध्वनिर्गोचरः श्रुतज्ञानस्य । ( नन्दीमवृप ६६ ) मतिज्ञान का विषय है - वर्तमानवर्ती वस्तु । श्रुतज्ञान का विषय है-अतीत, वर्तमान और अनागततीनों कालों में समान परिणमन वाली ध्वनि । १६. मति और श्रुत में अभेद जत्थ जत्था भिणिबोहियनाणं, तत्थ सुयनाणं । सुयनाणं, तत्था भिणिबोहियनाणं । दोवि एयाई अण्णमण्ण मणुगाई | ( नन्दी ३५ ) जहां मतिज्ञान है, वहां श्रुतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है, वहां मतिज्ञान है । ये दोनों परस्पर अनुगत हैं । जं सामिकाल-कारण- विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाई । भावे सेसाणि य तेणाईए मइ सुयाई ॥ ( विभा ८५ ) स्वामि-काल- कारण -विषय-परोक्षत्वसाधर्म्यात् तद्भावे च शेषज्ञानभावादादावेव मतिज्ञान - श्रुतज्ञानयोरुपन्यासः । य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य । यावान् मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य । यथा च मतिज्ञानं क्षयोपशमहेतुकं तथा श्रुतज्ञान मपि । यथा । मतिज्ञानमादेशतः सर्वद्रव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि । यथा मतिज्ञानं परोक्षं एवं श्रुतज्ञानमपीति तथा मतिश्रुतज्ञानयोरेव अवध्यादिज्ञानभावादिति । ( नन्दीहावृ पृ १९ ) मति और श्रुत में निम्न दृष्टियों से साधर्म्य है१. अधिकारी - जो मतिज्ञान का अधिकारी है, वही श्रुतज्ञान का अधिकारी है । २. काल - जितनी स्थिति मतिज्ञान की है, उतनी ही स्थिति श्रुतज्ञान की है । ३. कारण --- दोनों ज्ञान क्षयोपशमहेतुक हैं । ४. विषय- दोनों का विषय सर्वद्रव्य है । ५. परोक्षत्व -- इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने के कारण दोनों परोक्ष हैं । ६. मति और श्रुत होने पर ही अवधि आदि शेष ज्ञान होते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy