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________________ आनुपूर्वी १०० अर्थपदप्ररूपणा م له له سه له م مه ر ع م سه ہے له یہ لسم لے الله مہ इसा उदाहरण के लिए यहां तीन अंकों की स्थापना की अर्थपदप्ररूपण -संज्ञा और संज्ञी के संबंध की जा रही है -१ २ ३ । इनका परस्पर गुणन करने पर प्ररूपणा । छह भंग (१४२४३=६) बनते हैं। प्रथम भंग पूर्वानु- भंगसमुत्कीर्तन-भंगों (विकल्पों) का निर्देश । पूर्वी क्रम से, अंतिम भंग पश्चानुपूर्वी क्रम से और भंगोपदर्शन-द्रव्य के साथ भंगों की योजना । मध्यवर्ती चार भंग अनानुपर्वी क्रम से स्थापित किए समवतार---अपनी जाति में होने वाला अन्तर्भाव या जाते हैं अवतरण । स्थापना अनुगम-आनुपूर्वी आदि की सत्, द्रव्य, क्षेत्र आदि अनेक कोणों से व्याख्या। ८. अर्थपदप्ररूपणा नेगम-ववहाराणं अटुपयपरूवणया-तिपएसिए आणुपुत्वी चउपएसिए आणुपुव्वी जाव दसपएसिए आणुपुत्वी संखेज्जपएसिए आणपुव्वी असंखेज्जपएसिए यहां दूसरे भंग में एक का ज्येष्ठ नहीं है। दो का आणुपुव्वी अणंतपएसिए आणुपुवी। परमाणपोग्गले ज्येष्ठ है एक, जो दो के नीचे स्थापित है। एक के आगे अणाणुपुवी। दुपएसिए अवत्तव्वए। तिपएसिया तीन स्थापित है, क्योंकि यह उपर्युक्त अंक के सदृश है। आणुपुव्वी ओ जाव अणंतपएसिया आणुपुव्वीओ परमाणु पोग्गला अणाणपुवीओ। दुपएसिया अवत्तव्वयाई। एक के पीछे शेष बचा अंक दो स्थापित है। (अनु ११५) इसी क्रमपद्धति से चार, पांच यावत् अनन्त पदों की त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी, चतुष्कप्रदेशिक आनुपूर्वी आनुपूर्वी की रचना की जा सकती है। यावत् दसप्रदेशिक आनुपूर्वी, संख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, ६. अनौपनिधिको : परिभाषा और प्रकार असंख्येयप्रदेशिक आनुपुर्वी, अनन्तप्रदेशिक आनुपूर्वी । याऽसावनोपनिधिकी सा नयवक्तव्यताश्रयणात् परमाणु पुद्गल अनानुपूर्वी। द्विप्रदेशिक अवक्तव्य । द्रव्यास्तिकनयमतेन द्विविधा प्रज्ञप्ता । त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वियां यावत् अनंतप्रदेशिक आनुपवियां (अनुहावृ पृ ३१) परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वियां और द्विप्रदेशिक अवक्तव्य अनौपनिधकी द्रव्यानपर्वी का विचार नयवक्तव्यता (अनेक) हैं-यह नैगम-व्यवहार-नय-सम्मत के आधार पर होता है। द्रव्यास्तिक नय के आधार पर प्ररूपणा है। इसके दो भेद विवक्षित हैं। आनुपूर्वी __ अणोवणि हिया सा दुविहा पण्णता, तं जहा यस्मात्परमस्ति न पूर्वं स आदिः, यस्मात्पूर्वमस्ति नेगमववहाराणं संगहस्स य।। (अनु ११२) न परमन्तः सः, तयोरंतरं मध्यमुपचरति । तदेतत् त्रयमाप अनौपनिधिकी के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं-नगम- यत्र वस्तुरूपेण मुख्यमस्ति तत्र गणनाक्रमः सम्पर्ण इतिव्यवहार नय की अनौपनिधिकी और संग्रह नय की कृत्वा पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव आनुपूर्वी । एतदुक्तं अनोपनिधिकी। भवति -- संबन्धिशब्दा ह्यते परस्परसापेक्षाः प्रवर्तन्त ७. नैगम-व्यवहार नय सम्मत अनौपनिधिको इति यत्रषां मुख्यो व्यपदेश्यव्यपदेशकभावोऽस्ति अयम नेगम-ववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाण पूवी स्यादिरयमस्यान्त इति तत्रानुपूर्वीव्यपदेश इति, त्रिप्रदेशापंचविहा पण्णत्ता, तं जहा --अट्ठपयपरूवणया भंगसमु- दिषु संभवति नान्यत्र । (अनुहावृ पृ ३२) क्कित्तणया भंगोवदंसणया समोयारे अणगमे । जिस वस्तु में आदि, मध्य और अंत-ये तीनों (अनु ११४) होते हैं, उसी में क्रम की व्यवस्था बनती है। जिससे नैगम-व्यवहार नय सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्य- पहले कोई नहीं है, वह आदि है। जिसके पहले कोई है, आनुपूर्वी के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं पर बाद में नहीं है, वह अन्तिम होता है। आदि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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